अविश्वास था । और इसलिए मेरा मन अनेक तरंगों में और अनेक विकारो के अधीन रहता था। मैंने देखा कि व्रतबंधन से दूर रहकर मनुष्य मोह में पड़ता हैं। व्रत से अपने को बांधना मानो व्यभिचार से छूटकर एक पत्नी से संबंध रखता है। मेरा तो विश्वास प्रयत्न में है, व्रत के द्वारा मैं बंधना नहीं चाहता यह वचन निर्बलता सूचक हैं और उसमें छिपे-छिपे भोग की इच्छा रहती हैं। जो चीज त्याज्य है, उसे सर्वथा छोड़ देने में कौन-सी हानि हो सकती है? जो सांप मुझे डसने वाला है उसको मैं निश्चय-पूर्वक हटा ही देता हूं, हटाने का केवल उद्योग नहीं करता; क्योंकि मैं जानता हूं कि महज प्रयत्न का परिणाम होने वाला है मृत्यु । ‘प्रयत्न में सांप की विकरालता के स्पष्ट ज्ञान का अभाव है । उसी प्रकार जिस चीज के त्याग का हम प्रयत्न-मात्र करते हैं उसके त्याग की आवश्यकता हमें स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दी है, यही सिद्ध होता है । 'मेरे विचार यदि बाद को बदल जाये तो ?' ऐसी शंका से बहुत बार हम व्रत लेते हुए डरते हैं। इस विचार में स्पष्ट दर्शन का अभाव है। इसीलिए निष्कुलानंद ने कहा है----
जहां किसी चीज से पूर्ण बैराग्य हो गया है वहां उसके लिए व्रत लेना अपने आप अनिवार्य हो जाता है ।
खूब चर्चा और दृढ़ विचार करने के बाद १९०६ में मैंने ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया । व्रत लेने तक मैंने धर्म-पत्नी से इस विषय में सलाह न ली थी । व्रत के समय अलबत्ता ली । उसने उसका कुछ विरोध न किया ।
यह व्रत लेना मुझे बड़ा कठिन मालूम हुआ । मेरी शक्ति कम थी । मुझे चिंता रहती कि विकारों को क्योंकर दबा सकेंग ? और स्वपत्नी के साथ विकारों से अलिप्त रहना एक अजीब बात मालूम होती थी । फिर भी मैं देख रहा था कि वही मैरा स्पष्ट कर्तव्य है । मेरी नीयत साफ थी । इसलिए यह