पिता की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का प्रभाव बच्चे पर अवश्य पड़ता है । माता की गर्भ-कालीन प्रकृति, माता के आहार-विहार के अच्छे-बुरे फल को विरासत में पाकर बच्चा जन्म पाता है । जन्म के बाद वह माता-पिता का अनुकरण करने लगता हैं । वह खुद तो असहाय होता है, इसलिए उसके विकास का दारोमदार माता-पिता पर ही रहता है ।
जो समझदार दंपती इतना विचार करेंगे वें तो कभी दंपति-संग को विषय-वासना की पूर्ति का साधन न बनावेंगे । वे तो तभी संग करेंगे, जब उन्हें संतति की इच्छा होगी । रति-सुख का स्वतंत्र अस्तित्व हैं, यह मानना मुझे तो घोर अज्ञान ही दिखाई देता हैं । जनन-क्रिया पर संसार के अस्तित्व का अवलंबन है । संसार ईश्वर की लीला-भूमि है, उसकी महिमा का प्रतिबिंब है । जो शख्स यह मानता है कि उसकी सुव्यवस्थित बुद्धि के लिए ही रति-क्रिया निर्माण हुई है, वह विषय-वासना को भगीरथ प्रयत्न के द्वारा भी रोकेगा । और रति-भोग के फलस्वरूप जो संतति उत्पन्न होगी उसकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रक्षा करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके अपनी प्रजा को उससे लाभान्वित करेगा !
अब ब्रह्मचर्य के संबंध में विचार करने का समय आया है । एक पत्नीव्रत ने तो विवाह के समय से ही मेरे हृदय में स्थान कर लिया था । पत्नी के प्रति मेरी वफ़ादारी मेरे सत्यव्रत का एक अंग था, परंतु स्वपत्नी के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करने की आवश्यकता मुझे दक्षिण अफ्रीका में ही स्पष्टरूप से दिखाई दी । किस प्रसंग से अथवा किस पुस्तक के प्रभाव से यह विचार मेरे मन में पैदा हुआ, यह इस समय ठीक याद नहीं पड़ता; पर इतना स्मरण होता है कि इसमें रायचंदभाई का प्रभाव प्रधानरूप से काम कर रहा था ।
उनके साथ हुआ एक संवाद मुझे याद है । एक बार मैं मि० ग्लैडस्टन के प्रति मिसेज ग्लैडस्टन के प्रेम की स्तुति कर रहा था । मैंने पढ़ा था कि हाउस