पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३
अध्याय ३ : कसौटी

मुझे उसका अनुभव यह पहली ही बार होने वाला था । पर छोकरे क्यों बैठने देने लगे ? उन्होंने रिक्शा वाले को धमकाकर भगा दिया ।

हम आगे चले । भीड़ भी बढ़ती जाती थी । काफी मजमा हो गया । सबसे पहले तो भीड़ ने मुझे मि० लाटन से अलग कर दिया । फिर मुझपर कंकड़ और सड़े अंडे बरसने लगे । किसी ने मेरी पगड़ी भी गिरा दी और मुझे लातें लगनी शुरू हुइँ ।

मुझे गश आ गया । नजदीक के घर के सींखचे को पकड़कर मैंने सांस लिया । खड़ा रहना तो असंभव ही था । अब थप्पड़ भी पड़ने लगे ।

इतने में ही पुलिस सुपरिन्टेंडेंट की पत्नी जो मुझ जानती थीं, उधर होकर निकलीं । मुझे देखते ही वह मेरे पास आ खड़ी हुई, और धूप के न रहते हुए भी अपना छाता मुझपर तान दिया । इससे भीड़ कुछ दबी । अब अगर वे चोट करते भी तो श्रीमती अलेक्जेंडर को बचाकर ही कर सकते थे ।

इसी बीच कोई हिंदुस्तानी, मुझपर हमला होता हुआ देख, पुलिस थाने पर दौड़ गया । सुपरिन्टेंडेंट अलेक्जेंडर ने पुलिस की एक टुकड़ी मुझे बचानेके लिए भेजी । वह समय पर आ पहुंची । मेरा रास्ता पुलिस चौकी से ही होकर गुजरता था । सुपरिन्टेंडेंट ने मुझे थाने में ठहर जाने को कहा । मैंने इन्कार कर दिया कहा--“जब लोग अपनी भूल समझ लेंगे तब शांत हो जायंगे । मुझे उनकी न्याय-बुद्धिपर विश्वास है ।”

पुलिस की रक्षा में में सही-सलामत पारसी रुस्तम जी के घर पहुंचां । पीठ पर मुझे अंदरूनी चोट पहुंची थी । जख्म सिर्फ एक ही जगह हुआ था । जहाज के डाक्टर दादी बरजोर वहीं मौजूद थे। उन्होंने मेरी अच्छी तरह सेवा-शुश्रूषा की ।

इस तरह जहां अंदर शांति थी, वहां बाहर से गोरों ने घर को घेर लिया । शाम हो गई थी । अंधेरा हो गया था । हजारों लोग बाहर शोर मचा रहे थे और पुकार रहे थे--“गांधी को हमारे हवाले कर दो । ”मामला संगीन देखकर सुपरिन्टेंडेंट अलेकजेंडर वहां पहुंच गये थे और भीड़ को डरा-धमका कर नहीं; बल्कि हंसी-मजाक करते हुए काबू में रख रहे थे ।

फिर भी वह चिंतामुक्त न थे । उन्होंने मुझे इस आशय का संदेश भेजा-- “यदि आप अपने मित्र के जान-माल को, मकान को तथा अपने बाल-बच्चों को

१३