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आत्म-कथा : भाग ३


वापस लौटाने की तजवीज थी। एजेंट को तो धमकी दी ही गई थी। अब हमें भी धमकियां दी जाने लगीं-- 'यदि तुम लोग वापस न लौटोगे तो समुद्र में डुबो दिये जाओगे। यदि लौट जाओगे तो शायद लौटने का किराया भी मिल जायगा ! मैं मुसाफिरों में खूब घूमा-फिरा और उन्हें धीरज-दिलासा देता रहा। 'नादरी' के यात्रियों को भी धीरज के संदेश भेजे। मुसाफिर शांत रहे और उन्होंने हिम्मत दिखाई !

मुसाफिरों के मनोविनोद के लिए जहाज में तरह-तरह के खेलों की व्यवस्था थी। क्रिसमस के दिन आये। कप्तान ने उन दिनों पहले दर्जे के मुसाफिरों को भोज दिया। यात्रियों में मुख्यतः तो मैं और मेरे बाल-बच्चे ही थे। भोजन के बाद भाषण हुआ करते हैं। मैंने पश्चिमी सुधारों पर व्याख्यान दिया। मैं जानता था कि यह अवसर गंभीर भाषण के अनुकूल नहीं है; पर मैं दूसरी तरह का भाषण कर ही नहीं सकता था। विनोद और आमोद-प्रमोद की बातों में मैं शरीक तो होता था; पर मेरा दिल तो डरबन में छिड़े संग्राम की ओर लग रहा था।

क्योंकि इस हमले का मध्यबिंदु मैं ही था, मुझपर दो इलजाम थे--

(१) हिंदुस्तान में मैंने नेटाल के गोरों की अनुचित निंदा की है; और

(२) मैं नेटाल को हिंदुस्तानियों से भर देना चाहता हूं और इसलिए 'कुरलैंड' और 'नादरी' में खासतौर पर नेटाल में बसाने के लिए हिंदुस्तानियों को भर लाया हूं।

मुझे अपनी जिम्मेदारी का खयाल था। मेरे कारण दादा अब्दुल्ला ने बड़ी जोखिम सिरपर ले ली थी। मुसाफिरों की भी जान जोखिम में थी; मैंने अपने बाल-बच्चों को साथ लाकर उन्हें भी दुःख में डाल दिया था। फिर भी मैं था सब तरह निर्दोष। मैंने किसी को नेटाल जाने के लिए ललचाया न था। 'नादरी' के यात्रियों को तो मैं जानता तक न था। 'कुरलैंड' में अपने दो-तीन रिश्तेदारों के अलावा और जो सैकड़ों मुसाफिर थे, उनके तो नाम ठाम तक न जानता था। मैंने हिंदुस्तान में नेटाल के अंग्रेजों के संबंध में ऐसा एक भी अक्षर न कहा था, जो नेटाल में न कह चुका था; और जो मैंने कहा था उसके लिए मेरे पास बहुतेरे सबूत थे।

इस कारण उस संस्कृति के प्रति, जिसकी उपज नेटाल के गोरे थे, जिसके