इसके मुताबिक हमारे जहाज पर भी पीला झंडा लहरा रहा था। डाक्टर आये। जांच करके पांच दिन के सूतक का हुक्म दिया; क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि प्लेग के जंतु तेईस दिन तक कायम रहते हैं। इसलिए उन्होंने यह तय किया कि बंबई छोड़ने के बाद तेईस दिन तक जहाजों को सूतक में रखना चाहिए।
परंतु इस सूतक के हुक्म का हेतु केवल आरोग्य न था। डरबन के गोरे हमें वापस लौटा देने की हलचल मचा रहे थे। इस हुक्म में यह बात भी कारणी भूत थी।
दादा अब्दुल्ला की ओर से हमें शहर की इस हलचल की खबरें मिला करती थीं। गोरे एक के बाद एक विराट् सभायें कर रहे थे। दादा अब्दुल्ला को धमकियां भेज रहे थे। उन्हें लालच भी देते थे। यदि दादा अब्दुल्ला दोनों जहाजों को वापस लौटा दें तो उन्हें सारा हरजाना देने को तैयार थे। पर दादा अब्दुल्ला किसी की धमकियों से डरने वाले न थे। इस समय वहां सेठ अब्दुल करीम हाजी आदम दूकान पर थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि चाहें कितना ही नुकसान हो, मैं जहाज को बंदरपर लाकर मुसाफिरों को उतरवाकर छोडूंगा। मुझे वह हमेशा सविस्तार पत्र लिखा करते। तकदीर से इस बार स्वर्गीय मनसुखलाल हीरालाल नाजर मुझे मिलने डरबन आ पहुंचे थे। वह बड़े चतुर और जवांमर्द आदमी थे। उन्होंने लोगों को नेक सलाह दी। उनके वकील मि० लाटन थे। वह भी वैसे ही बहादुर आदमी थे। उन्होंने गोरों के काम की खूब निंदा की और लोगों को जो सलाह दी वह केवल वकील की हैसियत से, फीस लेने के लिए नहीं, बल्कि एक सच्चे मित्र के तौरपर दी थी।
इस तरह डरबन में द्वंद्व-युध्द् छिड़ा। एक ओर बेचारे मुट्ठी-भर भारतवासी और उनके इने-गिने अंग्रेज मित्र, तथा दूसरी ओर धन-बल, बाहु-बल, अक्षर-बल और संख्या-बल में भरे-पूरे अंग्रेज। फिर इस बलशाली प्रतिपक्षी के साथ सत्ता-बल भी मिल गया; क्योंकि नेटाल-सर्कार ने प्रकट-रूप से उसकी सहायता की। मि० हैरी एस्कम्ब जो प्रधान-मंडल में थे और उसके कार्ता-धर्ता थे, उन्होंने इस मंडल की सभा में खुले तौरपर भाग लिया था।
इसलिए हमारा सूतक केवल आरोग्य के नियमों का ही अहसानमंद न था। बात यह थी कि एजेंट को अथवा यात्रियों को किसी-न-किसी बहाने तंग कर के हमें