मैं मिलने गया तब दूसरे मिलने वाले उन्हें घेरे हुए थे। उन्होंने कहा, “मुझे अंदेशा है कि आपकी बात में यहां के लोग दिलचस्पी न लेंगे। आप देखते ही हैं कि यहां हम लोगों को कम मुसीबतें नहीं हैं। फिर भी आपको तो भरसक कुछ-न-कुछ करना ही है। इस काम में आपको महाराजाओं की मदद की जरूरत होगी। 'ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिएगा। राजा सर प्यारी-मोहन मुकर्जी और महाराजा टागोर से भी मिलिएगा। दोनों उदार-हृदय हैं और सार्वजनिक कामों में अच्छा भाग लेते हैं।” मैं इन सज्जनों से मिला; पर वहां मेरी दाल न गली। दोनों ने कहा-- 'कलकत्तामें सभा करना आसान बात नहीं, पर यदि करना ही हो तो उसका बहुत-कुछ दारोमंदार सुरेंद्रनाथ बनर्जीपर है। '
मेरी कठिनाइयां बढ़ती जाती थीं। 'अमृतबाजार पत्रिका' के दफ्तर में गया। वहां भी जो सज्जन मिले उन्होंने मान लिया कि मैं कोई रमताराम वहां आ पहुंचा होऊंगा। 'बंगवासी' वालों ने तो हद कर दी। मुझे एक घंटे तक तो बिठाये ही रक्खा। औरों के साथ तो संपादक महोदय बातें करते जाते; पर मेरी और आंख उठाकर भी न देखते। एक घंटा राह देखने के बाद मैंने अपनी बात उनसे छेड़ी। तब उन्होंने कहा--“आप देखते नहीं, हमें कितना काम रहता हैं ? आपके जैसे कितने ही यहां आते रहते हैं। आप चले जायं, यही अच्छा है। हम आपकी बात सुनना नहीं चाहते।” मुझे जरा देर के लिए रंज तो हुआ, पर मैं संपादक का दृष्टि-बिंदु समझ गया। 'बंगवासी' की ख्याति भी सुनी थी। मैं देखता था कि उनके पास आने-जानेवालों का तांता लगा ही रहता था। ये सब उनके परिचित थे। उनके अखबार के लिए विषयों की कमी न थी। दक्षिण अफ्रीका का नाम तो उन दिनों में नया ही नया था। नित नये आदमी आकर अपनी कष्ट-कथा उन्हें सुनाते। अपना-अपना दु:ख हरेक के लिए सबसे बड़ा सवाल था; परंतु संपादक के पास ऐसे दुखियों का झुंड लगा रहता। बेचारा सबको तसल्ली कैसे दे सकता है! फिर दु:खी आदमी के लिए तो संपादक की सत्ता एक भारी बात होती है। यह दूसरी बात है कि संपादक जानता रहता है कि उसकी सत्ता दफ्तर के दरवाजे के बाहर पैर नहीं रख सकती।
पर मैंने हिम्मत न हारी। दूसरे संपादकों से मिला। अपने मामूल के माफिक अंग्रेजों से भी मिला। ‘स्टेट्समैन’ और ‘इंग्लिशमैन'दोनों दक्षिण