पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१८१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३
अध्याय २२ : धर्म-निरीक्षण


ब्रिफ','व्हाट-टू डु' इत्यादि पुस्तकों ने मेरे दिलपर गहरी छाप ली। विश्द में मनुष्य को कहां तक ले जाता है, यह हैं उससे अधिकाधिक समझने लगा।

इन्हीं दिनों एक दूसरे ईसाई-कुटुंब के साथ मेरा संबंध बधा। उन लोगों की इच्छा से मैं वेस्लियन गिरजा में हर रविवार को जाता। प्रायः हर रविवार को मेरा शामका जाना भी उन्हीं के यहां होता। वेस्लियन गिरजा का मुझपे अच्छा असर न हुआ। वहां जो प्रवचन हुआ करते थे वे मुझे नीरस मालूम हुए। उपस्थित जन में मुझे भक्ति-भाव न दिखाई दिया। ग्यारह बजे हम होने वाले ग्रह मंडली मुझे भक्तों की नहीं, बल्कि कुछ तो मनोबिनोद के लिए और कुछ प्रथा को प्रभाव एकत्र होनेवाले संसारी जीवों की टोली मालूम हुई। कभी तो इस सभा में बरबस मुझे नींद के झोके आने लगते, जिससे मैं लज्जित होता; पर जब मैं अपने आसपासवालों को भी झोके खाते देखता, तो मेरी लज्जा हल्की पड़ जाती। अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी न मालूम हुई। अंतको ने गिरजा जाना ही छोड़ दिया !

जिस परिवार के यहां मैं हर रविवार को जाता था, वहां भी मुझे इस तरह से छुट्टी मिली। गृह-स्वामिनी भोली, भाली, परंतु संकुचित विचारवाली मालूम हुई। उसके साथ हर वक्त कुछ-न-कुछ धार्मिक चर्चा हुआ ही करती है। उन दिनों में घर पर ‘लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था। एक दिन हम ईसा और बुद्ध की तुलना के फेरमें पड़ गये--

“बुद्ध की दया को देखिए। मनुष्य-जाति से आगे बढ़कर वह दूसरे प्राणियों तक जा पहुंची। उसके कंधे पर किलोल करनेवाले मेमने का दृश्य आंखों के, सामने आते ही आपको दृश्य प्रेम से नहीं उमड़ पड़ता ? प्राणिमात्र कै प्रति यह प्रेम मुझे ईसा के जीवन में कहीं दिखाई नहीं देता ।”


मेरे इस कथन से उस वहन को दुःख हुआ। मैं उनकी भावना को समझ गया वह अपनी बात अगे न चलाई ! बाद को हम भोजन करने गये। उसका कोई पांच साल का हंसमुख बच्चा हमारे साथ था। बालक मेरे साथ होने पर मुझे फिर किस बात की जरूरत ? उसके साथ मैंने दोस्ती तो पहले ही कर ली थी। मैंने उसकी थाली में पड़े मांस के टुकड़े का मजाक किया और अपनी रकाबी में शोभित

‘मुण्ड़ल' से इसका अनुवाद ' क्या करें ? ' नामसे काशित हुआ है।