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आत्म-कथा : भाग २


सुंदरम् ने सोचा कि मेरे सामने भी इसी तरह जाया जाता होगा । बालासुंदरम् का यह दृस्य मेरे लिए पहला अनुभव था । मैं शरमिंदा हुआ। मैने बालासुंदरम् से कहा, "पहले फैंटा सिरपर बांध लो ।” बड़े संकोच से उसने फैंटा बांधा; पर मैंने देखा कि इससे उसे बड़ी खुशी हुई। मैं अब तक यह गुत्थी न सुलझा सका कि दूसरों को नीचे झुकाकर लोग उसने अपना सम्मान किस तरह मान सकते होंगे ।

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तीन पौंड का कर

बालासुंदरम् वाली घटना ने साथ मेरा संबंध जोड़ दिया; परंतु उनकी स्थिति का गहरा अध्ययन तो मुझे उनपर कर बैठाने की जो हलचल जल्दी उसके फलस्वरूप करना पड़ा।


१८९४ नेटाल-सर्कार ने गिरमिटिया हिंदुस्तानियों पर प्रतिवर्ष २५ पौंड अथात् ३७५) का कर बिठाने का बिल तैयार किया ! इस मसविने को पढ़कर मैं तो भौचक्का रह गया। मैंने उसे स्थानिक कांग्रेस में पेश किया और कांग्रेस ने उसके लिए आवश्यक हलचल करने को प्रस्ताव स्वीकार किया ।

इस करका ब्योरा थोड़ा सुन लीजिए--

१८६० ईस्वी के लगभग, जबकि नेटाल गोरों ने देखा कि यहां ईख की खेती अच्छी हो सकती हैं, उन्होंने मजूरों की खोज करनी शुरू की । यदि मजूर न मिलें तो न गन्ने की फसल हो सकती थी, न गुड़-शक्कर बन सकता थ! ! नेटाल के हवशी इस काम को नहीं कर सकते थे। इसलिए नेटाला गोरो ने भारतसरकार से लिखा-पट्टी करके हिंदुस्तानी मजूरों को नेटाल ले जाने की इजाजत हासिल कर ली। उन्हें लालच दिया गया था कि तुम्हें पांच साल तो बंधकर हमारे यहां काम करना पड़ेगा, फिर आजाद हो, शौक से नेटाल रहो। उन्हें जमीन का हक माल्कियत भी पूरा दिया गया था। उस समय गोरें की यह इच्छा थी कि हिंदुस्तानी मजदूर पांच साल की गिरमिट पूरी करने के बाद खुशी से जमीन जोते और अपनी मेहनत का लाभ नेटाल को पहुंचायें ।

भारतीय कुलियों ने नेटाल को यह लाभ अशा से अधिक दिया । तरह