पास एक पौंड लिखाया । यह मेरे लिए बीमा करने-जैसा था; पर मैंने सोचा कि जहां मेरा इतना खर्च-वर्च चलेगा यहां प्रतिमास एक पौंड क्यों भारी पड़ेगा ? और ईश्वर ने मेरी नाव चलाई ! एक टोंड वालो की संख्या खासी हो गई। इस शिलिंइगवाले उससे भी अधिक हुए । इसके अलावा बिना' सभ्य हुए भेंट के तौर पर जो लोग दे दे सो अलग !
अनुभव ने बताया कि उगाही किये बिना कोई चंदा नहीं दे सकता है डरबन से बाहरवालों के यहां बार-बार जाना असंभव था। इससे मुझे मारी "आरंभ-शूरता का परिचय मिला। इसमे भी बहुत चक्कर खाने पड़ते, तब कहीं जाकर चंदा मिलता। मंत्री था, रुपया वसूल करने का जिम्मा मुझपर था। मुझे अपने मुंशी को सारा दिन चंदावसुली मैं गाये रहने की नौबत आ गई है। बेचारा भी उकता उठा । मैंने सोचा कि मासिक नहीं, वार्षिक चंदा होना चाहिए और वह भी सबको पेशी दे देना चाहिए । वह, सभा की गई और सब ने इस बात को पसंद किया । तय हुआ कि कम-से-कम तीन पवादिक चंदा लिया जाय । इससे वसूलीका काम आसान हो गया ।
आरंभ में ही मैंने यह सीख लिया था कि सार्वजनिक काम कभी कर्ज लेकर नहीं चलाना चाहिए। और बातों में भले ही लोगों का विश्वास कर लें, पर पैसे की बात नहीं किया जा सकता ! मैंने देख लिया था कि वादा कर चुकने पर भी देने के धर्म का पालन कहीं भी नियमित रूप नहीं होता। नेटाल मैं हिंदुस्तानी इसके अपवाद न थे। इस कारण ‘ इस कारन (नेटाल इंडियन कांग्रेस) ने कभी कर्ज करके कोई काम नहीं किया ।
सभ्य बनाने में साथियों असीम उत्साह प्रकट किया था। उससे उनकी बड़ी दिलचस्पी हो गई थी। उसके कार्य से अनमोल अनुभव मिलता था । बहुतेरे लोग खुशी-खुशी नाम लिखवाते और चंदा दे देते है , दूर-दूर के गांवों में जरा मुश्किल पेश होती । लोग सार्वजनिक काम की महिमा नहीं समझते थे । कितनी ही जगह तो लोग अपने यहां आने का न्यौता भेजते, असुर व्यापारी के महा ठहराते; परंतु इस भण में हमें एक जगह शुरूआत ही दिक्कत पेश हुई । यहाँ से छः पौंड मिलने चाहिए थे; पर वह् तीन पौंड से आगे न बढ़ते थे। यदि उनसे इतनी ही रकम लेते तो औरो से इससे अधिक न मिली। ठहराय हम उन्हीं के यहां गये