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आत्म-कथा : भाग २


यह शिक्षा मेरे हृदय मैं इतने जोर के साथ अंकित हो गई कि अपने बीस साल के वकील-जीवन में अधिक समय में सैकड़ो फरीकर्न समझौता कराने में बीता । इसमें मैंने पाया कुछ नहीं। धन खोया हो, यह भी नहीं कह सकते; और आत्मा को तो किसी तरह नहीं खोया ।

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धार्मिक मंथन

अब फिर ईसाई-मित्रों के संपर्क पर विचार करने का समय आया है । मेरे भविष्य के संबंध में मि० बेकर की चिंता दिन-दिन बढ़ती जा रही थी । वह मुझे वेलिंग्टन कन्वेंशन ले गये । प्रोटेस्टेंट ईसाइयों में, कुछ-कुछ वर्षों बाद, धर्म-जागृति अर्थात् आत्म-शुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किये जाते हैं। इसे धर्मकी पुनःप्रतिष्ठा अथवा धर्म का पुनरुद्धार कहा करते हैं। ऐसा एक सम्मेलन वेलिंग्टन था । उसके सभापति वहां के प्रख्यात धर्मनिष्ठ पादरी रेबरंड एंडु मरे थे । मि बेकर को ऐसी आशा था कि इस सम्मेलन में होनेवाली जाति, वहां आनेवाले लोगों का धार्मिक उत्साह, उनका शुद्धभाव, मुझपर ऐसा गहरा असर डालेगा। कि मैं ईसाई हुए बिना न रह सकूगा ।

परंतु मि० बेकर को अंतिम अधार था प्रार्थना-जल । प्रार्थना पर उनकी भारी श्रद्धा थी । उनका विश्वास था कि अंतःकारण-पूर्वक की गई प्रार्थना को ईश्बर अवश्य सुनता है । वह कहते, ‘प्रार्थना के ही बलपर मुल (एक विख्यात भावुक ईसाई) जैसे लोगों का काम चलता है ।' प्रार्थना की यह महिमा मैनें तटस्थ भाव से सुनी । मैंने उनसे कहा कि यदि मेरी अंतरात्मा पुकार उठे कि मुझे ईसाई हो जाना चाहिए तो दुनिया की कोई शक्ति मुझे रोक नहीं सकती । अंतरात्मा की पुकार के अनुसार चलने की आदत तो मैं कितने ही वर्षोंसे डाल चुका था। अंतरात्मा के अधीन होते हुए मुझे आनंद आता । उसके विपरीत आचरण करना मुझे कठिन और दुखदाई मालूम होता था ।

हम वेलिंग्टन गये । मुझ ‘श्याम साथी' को साथ रखना मि० बैंकर के लिए भारी पड़ा । कई बार उन्हें मेरे कारण असुविधा भोगनी पड़ती। रास्ते मैं