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आत्म-कथा : भाग २

"तो मैं अपने वकीलको लिखूंगा। वह आपके ठहरनेका इंतजाम कर देंगे। प्रिटोरियामें मेरे मेमन मित्र हैं। उन्हें भी मैं लिखूंगा तो, पर आपका उनके यहां ठहरना उचित न होगा। वहां अपने प्रतिपक्षीकी पहुंच बहुत है। आपको मैं जो खानगी चिट्ठियां लिखूंगा वह यदि उनमेंसे कोई पढ़ ले तो अपना सारा मामला बिगड़ सकता है। उनके साथ जितना कम संबंध हो उतना ही अच्छा।"

मैंने कहा—"आपके वकील जहां ठहरावेंगे वहीं ठहरूंगा। अथवा मैं कोई दूसरा मकान ले लूंगा। आप बेफिक्र रहिए, आपकी एक भी खानगी बात बाहर न जायगी? पर मैं मिलता-जुलता सबसे रहूंगा। मैं तो दूसरे पक्षवालोंसे भी मित्रता करना चाहता हूं। यदि हो सकेगा तो मैं मामलेको आपसमें भी निपटाने की कोशिश करूंगा, क्योंकि आखिर तैयब सेठ हैं तो आपके ही रिश्तेदार न।"

प्रतिवादी स्वर्गीय सेठ तैयब हाजी खानमुहम्मद अब्दुल्ला सेठ के नजदीकी रिश्तेदार थे।

मैंने देखा मेरी इस बातसे अब्दुल्ला सेठ कुछ चौंके; पर अब मुझे डरबन पहुंचे छ:-सात दिन हो गये थे और हम एक-दूसरे को जानने, समझने भी लगे थे। अब मैं 'सफेद हाथी' प्राय: नहीं रह गया था। वह बोले—

"हां... आ... आ, यदि समझौता हो जाय तो उससे बढ़कर उम्दा बात क्या हो सकती? पर हम तो आपसमें रिश्तेदार हैं, इसलिए एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। तैयब सेठ आसानीसे मान लेनेवाले शख्स नहीं हैं। हम यदि भोले-भाले बनकर रहें तो वह हमारे पेटकी बात निकालकर पीछे से हंसा मारेंगे। ऐसी हालतमें आप जो कुछ करें बहुत सोच-समझकर होशियारीसे करें।"

"आप बिलकुल चिंता न करें। मुकदमे की बात तो तैयब सेठसे क्या किसीसे भी क्यों करने लगा? पर यदि दोनों आपसमें समझ लें तो वकीलोंके घर न भरने पड़ेंगे।"

सातवें या आठवें दिन मैं डरबनसे रवाना हुआ। मेरे लिए पहले दर्जेका टिकट लिया गया। सोनेकी जगहके लिए वहां ५ शिलिंग का एक अलहदा अलगसे लेना पड़ता था। अब्दुल्ला सेठने आग्रहके साथ कहा कि सोनेका टिकट कटा लेना,