मंडलमें आये थे। इन्हीं दिनों स्वर्गीय पारसी रुस्तमजीसे जान-पहचान हुई। और इसी समय स्वर्गीय आदमजी मियांखानसे परिचय हुआ। ये सब लोग आपसमें बिना काम एक-दूसरेसे न मिलते थे। अब इसके बाद वे मिलने-जुलने लगे।
इस तरह मैं परिचय बढ़ा रहा था कि इसी बीच दूकानके वकीलका पत्र मिला कि मुकदमेकी तैयारी होनी चाहिए तथा या तो अब्दुल्ला सेठको खुद प्रिटोरिया जाना चाहिए अथवा दूसरे किसीको वहां भेजना चाहिए।
यह पत्र अब्दुल्ला सेठने मुझे दिखाया और पूछा— "आप प्रिटोरिया जायंगे?" मैंने कहा— "मुझे मामला समझा दीजिए तो कह सकूं। अभी तो मैं नहीं जानता कि वहां क्या करना होगा।" उन्होंने अपने-गुमाश्तोंके जिम्मे मामला समझानेका काम किया।
मैंने देखा कि मुझे तो अ-आ-इ-ईसे शुरुआत करनी होगी। जंजीबारमें उतरकर वहांकी अदालतें देखनेके लिए गया था। एक पारसी वकील किसी गवाहका बयान ले रहा था और जमा-नामेके सवाल पूछ रहा था। मुझे जमा-नामेकी कुछ खबर न पड़ती थी, क्योंकि बहीखाता न तो स्कूलमें सीखा था और न विलायतमें।
मैंने देखा कि इस मुकदमेका तो दारोमदार बहीखातोंपर है। जिसे बहीखातेका ज्ञान हो वही मामलेको समझ-समझा सकता है। गुमाश्ता जमा-नामेकी बातें करता था और मैं चक्करमें पड़ता चला जाता था। मैं नहीं जानता था कि पी. नोट क्या चीज होती है। कोषमें यह शब्द नहीं मिलता। मैंने गुमाश्तोंके सामने अपना अज्ञान प्रकट किया और उनसे जाना कि पी. नोटका अर्थ है प्रामिसरी नोट। अब मैंने बहीखातेकी पुस्तक खरीदकर पढ़ी। तब जाकर कुछ आत्म-विश्वास हुआ और मामला समझमें आया। मैंने देखा कि अब्दुल्ला बहीनामा लिखना नहीं जानते, पर अनुभव-ज्ञान उनका इतना बढ़ा-चढ़ा था बहीखाते की उलझनें चटपट सुलझाते जाते। अंतको मैंने उनसे कहा— "मैं प्रिटोरिया जानेके लिए तैयार हूं।"
"आप ठहरेंगे कहां?" सेठने पूछा।
"जहां आप कहेंगे।" मैंने उत्तर दिया।