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अध्याय २४ : बैरिस्टर तो हुए-लेकिन आगे?


यह परीक्षा दो बार करके दी जाती थी। परीक्षाके लिए पुस्तकें नियत थीं, परंतु उन्हें शायद ही कोई पढ़ता होगा। रोमन लॉके लिए तो छोटे-छोटे 'नोट्स' लिखे हुए मिलते थे। उन्हें पंद्रह दिनमें पढ़कर पास होनेवालोंको भी मैंने देखा है। इंग्लैंडके कानूनोंके विषयमें भी यही बात होती थी। उनके 'नोट्स' दो-तीन महीनेमें पढ़कर पास होनेवाले विद्यार्थियोंको भी मैंने देखा है। परीक्षाके प्रश्न आसान और परीक्षक भी उदार। रोमन लॉमें ९५ से ९९ प्रति सैकड़ा विद्यार्थी पास होते थे; और अंतिम परीक्षमें ७५ अथवा उससे भी कुछ अधिक। इसलिए फेल होनेका भय बहुत ही कम रहता था। और परीक्षा भी वर्षमें एक नहीं बल्कि चार बार होती थी। ऐसी सुविधाजनक परीक्षा किसीको भी बोझ नहीं मालूम हो सकती थी।

परंतु मैने अपने लिए उसे एक बोझ बना लिया था। मैंने सोचा कि मुझे तो मूल पुस्तकें सब पढ़ लेनी चाहिए। उन्हें न पढ़ना अपनेआपको धोखा देना प्रतीत हुआ। इसलिए काफी खर्च करके मूल पुस्तकें खरीद लीं। रोमन लॉको लैटिनमें पढ़ जानेका निश्चय किया। विलायतकी प्रवेश-परीक्षामें मैंने लैटिन पढ़ी थी। उससे यहां अच्छा फायदा हुआ। यह मिहनत व्यर्थ न गई। दक्षिण अफ्रीकामें रोमन-डच लॉ प्रमाणभूत माना जाता है। उसे समझनेमें मुझे जस्टीनियनका अध्ययन बड़ा ही उपयोगी साबित हुआ।

इंग्लैंडके कानूनोंका अध्ययन मैं काफी मिहनत करनेपर नौ महीनेमें पूरा कर सका था। क्योंकि ब्रुमकी 'कॉमन लॉ' नामक बड़ी परंतु सरस पुस्तक पढ़नेमें ही बहुत समय लगा था। स्नेल की 'इक्विटीमें' दिल तो लगा; परंतु समझनेमें दम निकल गया। व्हाइट और ट्यूडरके मुख्य मुकदमोंमें जो-जो पढ़नेके थे उन्हें पढ़नेमें आनंद भी आया और ज्ञान भी मिला। विलियम्स और एडवर्ड्सकी स्थावर-संपति संबंधी और गुडीकी जंगम संबंधी पुस्तक मैं बड़ी दिलचस्पीके साथ पढ़ सका था। विलियम्सकी पुस्तक तो मुझे उपन्यासके जैसी मालूम हुई। उसे पढ़ते हुए छोड़नेको जी नहीं चाहता। कानूनी पुस्तकोंमें हिंदुस्तान आनेके बाद, मैं मेइनका 'हिंदू लॉ' उतनी ही दिलचस्पीके साथ पढ़ सका था, परंतु हिंदुस्तानके कानूनोंकी बात करनेके लिए यह स्थान नहीं है।

परीक्षायें पास कीं। १० जून १८९१ ई॰ को मैं बैरिस्टर हुआ। ग्यारहवीं