यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
71
[ACT VI.
SAKUNTALA.


अब वही दृष्टि मेरे हृदय को विष की बुझी67a भाल के समान छेदती है ॥


मिश्र० । (आप ही आप) देखो अपना प्रयोजन कैसा होता है कि इस का दुख सुनना भी मुझे सुहाता है


दुष्य०' । मित्र विचारो तौ। उस अप्सरा को कौन ले गया ॥


माढ० । जो इतना ही जानता68 तौ अब तक तुम्हारा दुख क्यों न दूर कर देता । आप ही बिचारो ॥


दुष्य० । ऐसी पतिव्रता को डिगाने की सामर्थ और किसी में न थी। उस की मा मेनका सुनी है। सो मेनका ही की सखियां ले गई होंगी।


मिथ० । (आप ही आप) शकुन्तला का त्यागना जाग्नदवस्था का काम नहीं है । स्वप्न में हुआ होगा ॥


माढ० । मित्र जो यही बात है तो उस के मिलने में कुछ विलम्ब मत जानो ॥


दुष्य० । क्यों । यह तुम ने कैसे जाना ॥


माढ० । ऐसे जाना69 कि मां बाप अपनी बेटी को पतिवियोग में बहुत काल नहीं देख सकते हैं ।


दुष्य० । क्या उस समय मुझे निद्रा थी या कुछ माया थी या मेरी मति भङ्ग हो गई थी या मेरे कर्मों ने पलटा लिया था। कुछ हो70 यह निश्चय है कि जब तक फिर शकुन्तला न मिलेगी7¹ मैं दुख के सागर में डूबा ही रहूंगा।


माढ० । निरास न होजिये । देखो मुट्री ही दृष्टान्त इस बात का है कि खोई वस्तु फिर मिल सकती है। दैवेच्छा सदा बलवान है ॥


दुष्य० । (मुदरी को देखकर) मुझे इस मुदरी का भी बड़ा सोच है।यह ऐसे स्थान से गिरी है जहां फिर पहुंचना दुर्लभ है । यह बड़ी मंदभागी है क्योंकि उस कोमल उंगली में जिस के नखों की लाली चुन्नी की दमक को फीका करती थी पहुंचकर फिर गिरी ॥