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[Act V.
SAKUNTALA.


शार्ङ्गरव। जब आप तपस्वियों के रखवाले बने हो फिर विघ्न क्योंकर पड़ेगा। सूर्य के प्रकाश में अंधेरा कब रह सकता है॥

दुष्य॰। (आप ही आप) जो मेरा ऐसा प्रताप है तो अब राजा शब्द मुझ में यथार्थ हुआ।41 ।(प्रगट) कन्व मुनि प्रसन्न हैं॥

शार्ङ्गरव। महाराज कुशल तौ तपस्वियों के सदा आधीन रहती है। गुरु जी ने आप का अनामय पूछकर यह कहा है॥

दुष्य॰।‌ क्या आज्ञा की है॥

शार्ङ्गरव। कि आप का इस कन्या से विवाह हुआ41a सो हम ने प्रसन्नता से अङ्गीकार किया क्योंकि आप तो सज्जनशिरोमणि हो और हमारी शकुन्तला भी साक्षात सुशीलता का रूप42 है। अब कोई ब्रह्मा43 को यह दोष न देगा कि अनमिल जोड़ी मिलाता है। तुम्हारे दोनों के44 समान गुण हैं। ऐसे दूलह दुलहिन की जोड़ी मिलाकर ब्रह्मा नामधराई से बचा। शकुन्तला तुम से गर्भवती है। अब इस को अपने रनवास में लो और दोनों मिलकर शास्त्रानुसार45 व्यवहार करो॥

गौतमी। हे राजा तुम बड़े मृदुलस्वभाव हो। इस से मेरे भी जी में कुछ46 कहने को आती है।

दुष्य॰। (मुसक्याकर) हां निस्संदेह कहो॥

गौतमी। शकुन्तला अपने पिता के आने तक न ठहरी और आप ने भी अपने कुटुम्बियों से कुछ47 न पूछी। आप ही आप दोनों ने व्याह कर लिया। लो अब निधड़क बात चीत करो। हम तो जाते हैं।

शकु॰। (आप ही आप) देखू अब यह क्या कहे॥

दुष्य॰। (क्लेश में आकर आप ही आप) यह क्या वत्तान्त है॥

शकु॰। (आप ही आप) हे दई राजा ने यह संदेसा ऐसे निरादर से क्यों सुना॥

शार्ङ्गरव। (आप ही आप) राजा ने अभी हौले से कहा है कि यह क्या वत्तान्त है। सो ऐसा क्यों कहा। (प्रगट) राजा तुम लोकाचार की सब