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Act v.
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SAKUNTALA.


गौतमी। दैव कुशल करेगा। तेरे भर्ती के कुलदेव अमङ्गलों को दूर करके तुझे सुख देंगे॥

(सब आगे को बढ़े)

पुरोहित। (राजा को बतलाकर) हे तपस्वियो वर्णाश्रम की36 रक्षा करने वाले महाराज आसन पर बैठे तुम्हारी बाट हेरते हैं37

शार्ङ्गरव। यही हमारी चाह थी। क्योंकि सदा की38 रीति है कि फल आए वृक्ष नवता है सुखद जल धारण करके मेघ झुकता है। ऐसे ही परोपकारी नर संपत्ति पाकर अभिमान त्यागते हैं॥

कञ्चुकी। महाराज ये ऋषि लोग आप के संमुख चले आते हैं। इस से आप में उन का स्नेह दिखाई देता है39

दुष्य॰। (शकुन्तला की ओर देखकर) आहा यह नारी कौन है जिस का रूप वस्त्रों में झलक रहा है। तपस्वियों के बीच में ऐसी दीप्यमान है मानों पीले पत्तों में नई कोंपल॥

कञ्चुकी। महाराज यह तो प्रत्यक्ष ही है कि रूप इस भाग्यवती का दर्शन योग्य है॥

दुष्य॰। रहने दो। पराई स्त्री देखनी उचित नहीं है।

शकु॰। (आप ही आप अपने हृदय पर हाथ रखकर) हे हृदय तू क्यों धड़कता है। राजा के प्रथम मिलाप का ध्यान करके धीरज धर॥

पुरोहित। (आगे जाकर) महाराज का कल्याण हो। इन तपस्वियों का आदर सत्कार विधिपूर्वक40 हो चुका। अब ये अपने गुरु का संदेसा लाए हैं। सो सुन लीजिये॥

दुष्य॰।(चादर से) सुनता हूं। कहने दो॥

दो॰ भाई।(हाथ उटाकर) महाराज की जय रहे॥

दुष्य॰। तुम सब को मैं भी प्रणाम करता हूं॥

दो॰ भाई। आप के कल्याण हों॥

दुष्य॰। तुम्हारे तप में तो कुछ विघ्न नहीं पड़ा॥