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Act IV.]
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SAKUNTALÀ

प्रि० । इन का थोड़ा सीधा होना भी बहुत है। तुम यह कहो कि कैसे मने ॥

अन० । जब किसी भांति न माने तब मैं ने पैरों में गिरकर यह बिनती की कि हे महापुरुष तुम को इस ने आगे नहीं देखा था । इस से तुम्हारे प्रभाव को नहीं जानती थी। अब इस कन्या का अपराध क्षमा करो॥

प्रि०। तब क्या कहा ॥

अन० । तब बोले कि मेरा आप झूठा नहीं होता है। परंतु जब इस का पति अपनी मुदरी को देखेगा तब श्राप मिट जायगा । यह कहकर अन्तान हो गये ॥

प्रि० । तो कुछ आशा है। क्योंकि जब वह राजर्षि चलने को हुना था" तब अपनी अंगूठी जिस में उस का नाम खुदा था शकुन्तला की उंगली में पहना दी थी और उस को तुरंत पहचान भी लेगा। यही शकुन्तला के लिये अच्छा उपाय है ॥

अन० । आओ। अब चलें । देवियों से प्रार्थना करें।

प्रि० । हे अनसूया देख । बाएं कर पर कपोल धरे पति के वियोग में थारी सखी कैसी चित्र सी बन रही है¹6। दूसरे की¹7 तो क्या चलाई । इसे अपनी भी सुध नहीं है ॥

अन० । हे प्रियंवदा यह श्राप की बात हम ही¹8 तुम जानें । शकुन्तला को मत सुनाओ। क्योंकि उस का स्वभाव कोमल बहुत¹9 है।

प्रि० । ऐसा कौन होगा जो मल्लिका की लहलही लता पर तता पानी छिड़के ॥ (दोनों गई)

(कन्ब का एक चेला आया)²0


चेला । महात्मा कन्व ऋषि प्रभासतीर्थ से आ गये हैं। और मुझे आज्ञा दी है कि देख आ रात कितनी रही है²¹ । सो मैं रात देखने को बाहर आया हूं। (इधर उधर फिरकर आकाश की ओर देखता हुआ) यहा यह

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