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Act III.]
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SAKUNTALÀ

प्रि० । तूं पड़ती जा68 । मैं इस कोमल कमल के पते पर अपने नखों से लिख लूंगी॥


शकु० । सखियो सुनो। इस छन्द में अर्थ बना या नहीं ।। दोनों सखी। बांच ॥

शकु० । ( बचती हुई )

दोहा69


तो मन की जानति नहीं अहो मीत मुखदैन ।
पै मो मन को करत है मैन महावेचैन ॥


सोरठा


लाग्यो तो सों नेह रैन दिना कल ना परे ।
प्रेम तपावत देह तन मन अपनो दे चुकी ॥


दुष्य० । (झट पट आगे बढ़कर उसी छन्द में पढ़ता हुशा)

दोहा


केवल तो हि तपावही मदन अहो सुकुमारि ।
भस्म करत पै मो हियो तू चित देखि बिचारि ॥


सोरठ


भानु मन्द कर देत केवल गंधि कमोदिनि हि।
पै शशिमण्डल स्वेत होत प्रात के दरस तें॥

दो० सखी । (हर्ष से) तुम भले आये। हमारी सखी का मनोरथ पूरा हुआ ॥ (शकुन्तला सादर देने को उठने की इच्छा करती हुई)


दुष्य० । रहो रहो । मेरे लिये क्यों परिश्रम करती हो। तुम्हारा यह ताप का70 सताया कोमल शरीर जो सेज के फूलों को कुम्हलाता है और ये भुजा जिन में कमल के मुरझाये कङ्कणों की सुगन्ध आती है इतना कष्ट सहने योग्य नहीं है ॥


शकु० । (आप ही आप) अरे मन तू अब तो धीरज धर ॥