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[Act III.
SAKUNTALÀ


और यह इतना ढीला हो गया है कि सरककर वार वार पहुंचे पर गिरता है।


प्रि०। (प्रगट) हे सखी अनसूया मेरे विचार में यह आता है कि एक मोतिपत्र लिखू और फूलों में छुपाकर प्रसाद के मिस से राजा को ढूं ॥


अन० । सखी यह उपाय बहुत उत्तम है । परंतु शकुन्तला से भी पूछ लो वह क्या कहती है ।


शकु० । उस उपाय का परिणाम मुझे सोच लेने दो ॥


प्रि० । जैसी तेरी दशा हो रही है वैसा ही कोई छन्द भी बना दे।


शकु० । सखी मैं छन्द तौ रचूंगी । परंतु डरती हूं कि कहीं वह राजा अपमान करके फेर न दे॥


दुष्य० । (आप ही आप) जिस के अपमान से तू डरती है सो हे प्राणप्यारी यह तेरे मिलने को तरसता है । जो कोई लक्ष्मी मिलने की चाह करे उसे चाहे" लक्ष्मो न भी मिले परंतु जिस को लक्ष्मी चाहे वह क्योंकर न मिले । हे सुन्दरी जिस से आदर मिलने में तुझे संदेह है सोई यह प्रीति लगाये तेरे संमुख खड़ा है। रत्न किप्ती को ढूंढने नहीं जाता है । रत्न ही को सब ढूंढते हैं॥<br


अन० । सखी तू अपने गुणों को घटाकर" कहती है । नहीं तो। ऐसा मूर्ख कौन होगा जो सूर्य का ताप मिटानेवाली शीतल शरद-चांदनी को रोकने के लिये अपने सिर पर कपड़ा ताने ॥


शकु० । (मुसक्याकर) मैं उसी बात के सोच विचार में हूं जो तुम ने कही है ॥ (सोचने लगी)


दुष्य० । (आप ही आप) प्यारी को लोचन भर" देखने का यह अवसर अच्छा है । इस समय छन्द बनाने में इस की चढ़ी भौंह कैसी शोभाय- मान है और पुलकित कपोलों से प्रीति कैसी स्पष्ट दरसाती है ॥


शकु० । सखी छन्द तो मैं ने बना लिया। परंतु लिखने की सामयी