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[ACT‌ ॥.
SAKUNTALA.

(प्रगट) जान पड़ा कि मित्र तुम तपस्वी की कन्या को चाहते हो । सो भला* इस से क्या मिलेगा। वह तो ब्राह्मण को बेटी है ।।

दुष्य०' । हे सखा दूज के चन्द्रमा को संसार मुंह उठाकर और आंख खोलकर किस प्रयोजन से देखता है। तू निश्चय मान कि अलीन वस्त में पुरुवंशियों का मन कभी नहीं जाता है। शकुन्तला एक राजर्षि की बेटी अप्सरा के पेट से है । जानते हो उस की मा उसे पृथी पर डाल स्वर्ग को उड़ गई । दैवयोग से कन्व ऋषि वहां आ निकले। उन्हों ने ऐसे उठा ली जैसे कोई मालती के कुम्हलाते नवीन फूल को आक के पत्ते से उठा ले ॥

माढ० । (हंसकर) जैसे किसी की रुचि छुहारों से हटकर इमली पर लगे तैसे ही तुम रनवास के स्त्रीरत्नों को छोड़ इस गंवारी पर आसक्त हुए हो॥

दुष्य०' । हे सखा जो तू उस को एक बेर देखे तो फिर ऐसी न कहे ॥

माढ० । सत्य है । जिस की राजा बड़ाई करे वह क्यों उत्तम न होगी।

दुष्य० । (मुमपाकर) बहुत कहां तक वर्णन करूं। जब मैं ब्रह्मा की। शक्ति को सोचता हूं और शकुन्तला के रूप को देखता हूं तो मेरी।समझ में इस सरस रत्न की चमक उस की सब सृष्टि को फीका करती है । जितने सुरूप के लक्षण हैं विधाता ने सव उसी मोहिनी में कट्रे किये हैं।

माढ० । जो ऐसी है तो उस के आगे सब रूपवती स्त्री निरादर हैं।

दुष्य० । मेरी दृष्टि में तो ऐसी ही है। न जानूं यह अनसूंघा फूल यह पछता पत्ता यह विना विधा रत्न यह नया मधु यह अखण्ड पुण्य का फल यह रूप की राशि विधाता किस बड़भागी के हाथ लगावेगा ॥

माढ० । उस से वेग विवाह कर लो। नहीं तो अखण्ड पुण्य का फल