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Act I.]
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ŚAKUNTALÅ.

शकृ० । (रिस सी होकर) आज तुझे क्या मूझी है ॥

प्रि० । सखी यह बात मं ने हंसी से नहीं कही । हम ने पिता कन्व के मुख से भी कुछ ऐसी ही सनी है। और इसी से तेरा सीचना इस लता को सफल हुआ है।॥

अन० । और इसी से इस लता की तं ने बड़े चाव से सीचा है।

शकु० । माध्वी लता तो मेरी बहन है। इसे क्ये न सीचती ॥ पानी का घट्टा भुक्लका दिय!)

दुष्य० । (आप ही आप निश्चय यह चषि की बेटी सजाती स्त्री से नहीं है अथवा मेरे ही मन में कुछ संदेह उपजा है। परंतु इस पर मेरा चित्त ऐसा लगा है कि अवश्य यह ट्राची के व्याहने योग्य होगी । नहीं तो सज्जनों के हृदय में जो कभी कुछ संभ्रम उपजता है तुरंत ही अन्त:करण के उत्साह से मिट जाता है। मेरा मन इस के बस हुआ। इस लिये निश्रय यह ब्राह्मण की बेटी नही हैं जो मेरे व्याहने योग्य न हो । भला हो सो हो इस का सत्य वृतान्त तो खोजना चाहिये ॥

शकु० । (मुख फेरकर) दई दई यह ढीठ भौंरा नई चमेली को छोड़ मेरे ही मुख पर वार वार गूंजता है।॥ (घबराती सी)

दुष्य० । आप ही आप कितनी वेर हम ने नगर की स्त्रियों को उड़ते भै।ारे से कटाक्ष करके मुख मोड़ते देखा है परंतु सदा बनावट ही पाई। इस भोरी के भांह मरोड़ने और अांखें तिरछी करने में केसा सीधापन है। हे मैरेि तू बड़ा बड़भागी है कि इन चञ्चत्न नेचे की कोर को स्पर्श करता है और कानों के निकट ऐसा जाता है मानो कुछ रहस्य का संदेसा मुनावेगा। जब तक वह हाथ उठाती है तू अमृतभरे होठे। से रस ले जाता है ॥

शकु० । यह ढीठ भैरा न मानेगा। अब यहां से अन्त चक्यूं। दूसरी ठोर गई। अरी देखो यहां भी पापी ने पीछा न छोड़ा । हे सखियो भोरा मुझे सताता है। इस से छुटाओ ॥