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ACT VII.
SAKUNTALA.


अपनी योगशक्ति" से जान लिया था कि तुम ने अपनी धर्मपत्नी को दुर्वासा के शाप बस होकर छोड़ा और इस शाप की अवधि मुदरी के दर्शन ही तक है॥


दुष्य० । (आप ही लाप) तो मैं अपराध से बचा ॥


शकू० । (प्राप ही प्राप) धन्य हैं मेरे भाग्य कि स्वामी ने मुझे जान बूझकर नहीं त्यागा था। शाप से ऐसा हुआ । और अब बड़ी शुभ घड़ी है कि राजा ने फिर मुझे पहचान लिया। जिस समय यह शाप हुआ मैं अपने आपे में न हंगी । मेरी सखियों ने सुना होगा परंतु स्नेह के मारे मुझ से न कहा । तौ भी चलते समय इतना कह दिया कि जो कहीं तेरा पति तुझे भूल जाय तो यह अंगूठी दिखा दीजिये ॥


कश्यप । (शकुन्तला की ओर देखकर) हे पुत्री अब तें ने सब वृत्तान्त जान लिया। अपने पति का अपराध मत समझ । उस ने शाप के बस तेरा अनादर किया था। अब वह भ्रम मिट गया और तू रानी हुई जैसे दर्पण जब तक धुंधला रहे तब तक उस में प्रतिबिम्स नहीं पड़ता फिर निर्मल होते ही मूर्ति ज्यों की त्यों दिखाई देती है ॥


दुष्य० । महात्मा सत्य है । उस समय मेरी ऐसी ही दशा थी॥


कश्यप । बेटा कहो तुम ने अपने इस पुत्र का भी जिस के जातकर्म ”मैं ने आप वेदविधि से किये हैं कुछ लाड़ प्यार किया कि नहीं ॥


दुष्य० । महात्मा यह तो मेरे वंश की प्रतिष्ठा है॥


कश्यप। यह भी जान लो कि यह बालक अपनी वीरता से चक्रवर्ती होगा । और सातों द्वीप में अखण्ड राज्य करेगा । जैसे इस ने यहां बालपन में वन के सिंह इत्यादि दुष्ट पशुओं को दण्ड देकर सर्वदमन नाम पाया है ऐसे ही युवा में प्रजा को भरण पोषण करके भरत" कहलावेगा ॥


दुष्य० । जिस बालक को आप से महात्मा ने शिक्षा दी है वह निश्चय सब बड़ाइयों के योग्य होगा ॥