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Act VIII.]
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अब तू वृथा सगुन क्यों दिखाती है। मेरे पहले सब सुख मिटकर केवल दुख रह गये हैं॥

(नेपथ्य में) अरे ऐसी चपलता क्यों करता है। क्यों तू अपनी बान नहीं छोड़ता॥

दुष्य॰। (कान लगाकर) हाय ऐसे स्थान में ताड़ना का क्या काम है। यह सीख किस को हो रही है। (जिधर थोल सुनाई दिया उधर देखके और आश्चर्य करके) आहा यह किस का पराक्रमी बालक है जिसे दो तपस्विनी रोकती हैं तौ भी खेल में नाहर के भूखे बच्चे को खैंचे लाता है॥

(सिंह के बच्चे को घसीटता हुआ एक बालक आया और उस के साथ दो तपस्विनी आई)

बालक। अरे छावड़े तू अपना मुख खोल। मैं तेरे दांत गिनूंगा॥

एक तपस्विनी। हे हठीले बालक तू इस वन के पशुओं को क्यों सताता हैं। हम तौ इन को बाल बच्चों के समान रखती हैं। तेरा खेल में भी साहस नहीं जाता। इसी से तेरा नाम ऋषि ने सर्वदमन रक्खा है॥

दुष्य॰। (आप ही आप) अहा क्या कारण है कि मेरा स्नेह इस लड़के में पुत्र का सा होता आता है। हो न हो यह हेतु है कि मैं पुत्रहीन हं॥

दू॰ तप॰। जो तू इस बच्चे को छोड़ न देगा तौ सिंहनी तुझ पर दौड़ेगी॥

बालक। (मुसक्याकर) ठीक है। सिंहनी का मुझे ऐसा ही डर है॥ (रोस में आकर होठ काटने लगा)

दुष्य॰। (आप ही आप चकित सा होकर) यह बालक किसी बड़े बली का वीर्य है। इस का रूप उस अग्नि के समान है जो सूखा काठ मिलने से अति प्रज्वलित होती है॥

प॰ तप॰। हे बालक सिंह के बच्चे को छोड़ दे। मैं तुझे उस से भी सुन्दर खिलौना दूंगी॥

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