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[Act VI.
SAKUNTALA.


दुष्य॰। कहो पर्वतायन क्या है॥

चोब॰। महाराज बड़ा उत्पात है॥

दुष्य॰। तू कांपता क्यों है। बुढ़ापे में मनुष्य की क्या गति हो जाती है। डर से बूढ़े मनुथ का शरीर ऐस थरथराता है जैसे पवन लगने से पीपल का वृक्ष॥

चोब॰। अपने सखा को छुड़ाओ॥

दुष्य॰। छुड़ाओ। काहे में से॥

चोब॰। आपत्ति में से॥

दुष्य॰। क्या कहते हो॥

चोब॰। वह भीति जिम से आकाश के चारों कोने दिखाई देते हैं और बादलों के मिले रहने से मेघच्छन्द कहलाती है....॥

दुष्य॰। सो क्या॥

चोब॰। उस भीति की मुडेल से जहां नीलग्रीव कपोत का भी पहुंचना कठिन है एक पिशाच ऐसा आया कि किसी को दृष्टि न पड़ा और आप के सखा को ले जाकर उसी भीति पर रख दिया॥

दुष्य॰। (तुरंत उठकर) हय मेरे रनवास में भी पिशाच रहते हैं। सत्य है राजा को अनेक विघ्न होते हैं। राजा उन उत्पातों को भी नहीं जानता है जो उसी के अधर्म से प्रतिदिन और प्रति छिन राजभवन में हुआ करते हैं। फिर वह क्योंकर जान सकता है कि मेरी प्रजा सुमार्ग में चलती है या कुमार्ग में। और जब राजा के कर्म आप ही निरङ्कुश हों तो वह प्रजा के कर्मों को किस भांति सुधार सकता है॥

(नेपथ्य में) चलियो चलियो॥

दुष्य॰। (मुनता और दौड़ता हुआ) डरो मत मित्र। कुछ भय नहीं है॥

(नेपथ्य में) भय क्यों नहीं है। भूत तौ मेरा कण्ठ पकड़े" कलेजा ऐंठे" डालता है॥