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संभरि मैं बहुश्रान के ! अझ गज्जन मैं साह ।। कहाँ आदि किम बैर हुआ । अति उतकंठ काहू ११, और उसमें चित्ररेखा बेश्या तथा शोरी के भाई हुसेन वाँ के पृथ्वीराज के शरणार्थी होने का प्रसंग चलाकर तथा युद्ध में सुलतान की पराजय और वृन्दीगृह से इसकी मुक्ति का वर्णन करके वड़ी आसानी से दसवाँ समय शोरी की द्रोहीदिन से बढ़ चलता है वर एक बीते कलह । रीस रधि सुरवान ! उर अंतर अग्गी जलै । चित सल्लै चहुअन ! ग्यारहवे समय में कवि पाठकों की उत्सुकता तीन्न करता हुआ, उनकी सुपरिचिता सुन्दरी चित्ररेखा की उत्पत्ति तथा अश्वपति !री द्वारा उसकी प्राप्ति का ललित प्रसंग चलाता है--- पुच्छि चंद बरदाई नैं । चित्ररेज उतपत्ति ।। ष हुसेन ब्रावास कहि । जिस लीनी असपत्ति ।।१ परन्तु अन्त में आगे की कथा की कोई सूचना नहीं देना ! पूर्द सूचित न होने के कारण बारहवें समय में नाटकीय ढंग से भोलाराय पीसदेव द्वार शिवपुरी जलाने का वर्णन प्रारम्भ होता है जो अनायास कौतूहल बढ़ा देती है तथा यह प्रसंग पृथ्वीराज द्वारा भोजराये की पराजय में समाप्त हो जाता है तथा तेरहवें समय के साथ वड़ युक्ति से यह कहकर सम्बन्धित कर दिया जाता है कि इधर जब भीमदेव से युद्ध छिड़ा था, उरी के अाक्रमण का समाचार मिला जिससे उधर चढ़ाई की गई-- अयन सिंह लग्गा सुअरि । सुनि करि बर थिराज ।।। सारु संग्हौ चढ्यौं ! वह गोरी प्रति लाज ||४ थे दोनों समर्थ भारद्वाज नाभी दो सुख और एक उदर याले पक्षी का उदाहरण देकर निम्न था' द्वारा मिलाये जाते हैं... भारद्वाज सु : पंथी। उभयं मुष उद्दर एके ।। त्यों इह कथ्थ मनं । जोनिज्यौ कोविंद लोयं ।।५ चौदहवाँ समये शुकी-शुक्र के प्रश्नोत्तरी से प्रारम्भ तो होता है परन्तु उसमें छिले समय से जोड़ने वाला एक उपयुक्त सूत्र भी सुलभ है । ‘gथ्वीराज ने शाह को बन्दी बनाकर और उसमें कर लेकर सत्कार के मुक्त कर दिया है, यह जानकर अबूपति सलख समार ने अपनी पुत्री इंछिनी । उनके साथ विवाह करना चाह।';