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अहमदशाह दुर्रानी ने इसे अफ़ानी राजधानी बनाश्रा । सन् १८३६ ई० में सर जान केन ने इस पर अधिकार कर लिया, परन्तु दिसम्बर १६, सन् १८४१ ई० से मार्च ६, सन् १८४२ तक अझट्टानों ने फिर इसे छीन लिया । इसी वर्ष बसंत में जेनरल नाट ने राज़नी का घेरा डाला और दुर्ग तथा दीवाल की रक्षा के बाद तोड़ कर महमूद गज़न्दी द्वारा ले जाये गये सोमनाथ के फाटक उठा लिये। *दि तुने प्रवल अाक्रमण द्वारा राज़नी और काबुल का अधिकार पा सकना तो परिस्थिति के अनुसार कार्य करना तथा ब्रिटिश सेना की मानव भावना को अक्षुण्ण रखते हुए उसके अतुलित बल की अमिट छाप छोड़े अना । ( सुलतान ) महमूद गजनवी की कब्र पर लटकता हुआ उसका ( राज ) दौंड और उसको क्षेत्र १ मकबरे के दरवाज़े जो सोमनाथ मंदिर के द्वार हैं, तुम अपने साथ ले आना । तुम्हारे अाक्रमण की सफलता के ये उचित विजय चिह्न होंगे ।” [लार्ड एडिनबरा द्वारा जनरल नाट को (२८ मार्च १८४३ ई० को गुप्त समिति की बैठक में भेजे हुए पत्र का एक अंश ) । महमूद ग़ज़नवी की कब्र के चंदन के द्वार वई समारोह के साथ भारत वर्ष में लाये गये। परन्तु पीछे सिद्ध हुआ कि वे सोमनाथ वाले द्वार न थे अस्तु उन्हें आगरा में लाल किले में रवा दिया गया जहाँ ३ अाज भी देखे जा सकते हैं। जुन सन् १८६८ में शेरली ने रजनी पर फिर अधिकार कर लिया । सन् १८८-८१ के अकान युद्ध के बाद अफ!निस्तान की परिस्थिति जो वदली तो निर्वासित अब्दुर्रहमान फिर अमीर हो गया । अंग्रेज़ों ने उससे सुलह कर ली और काबुल, रजनी, जलालाबाद और कंधार उसे दे दिये । ग़ज़नी तभी से अफगानिस्तान के शाहों के पास चला आता है । अफगानिस्तान में यद्यपि अनेक घटनायें तव से हो चुकी हैं परन्तु राज़नी का उनमें विशेष हाथ नहीं रहा' (Afghanistan, factatunn, pp. 168, 206). अाज पुरानी इमारदों में राज़नी में १४० फिट ऊँचे दो मीनार परस्पर ४०० गज़ की दूरी पर हैं। उत्तरी मीनार के कूफ़िक लिपि के लेखों से पता लगता है कि वह महमूद ग़ज़नवी का बनवाया हुआ है और दूसरा उसके पुत्र मसऊद का हैं । राज़नी दुर्ग, नर से उत्तर पहाड़ियों के बाद है। इस नगर से एक मील आगे काबुल जाने वाली सड़क पर एक साधारण वाग में प्रसिद्ध विजेता महमूद की क़ब्र हैं । इरानी से ऊन, फलों और खालों को व्यापार भारतवर्ष से होता है ।