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( १४० ) शब्दार्थ–८.० ६१—एर= हेरहु, खोजो। जिन<जिनिं, अव्यय ) | हि० जनि ]= सत, नहीं । भतः=नहीं । चंद ने Double negatives का प्रयोग बहुधा किया है; उ०. न'; रासो में इसकी भरमार है, वैसे ही यहाँ अाया हुआ। जिन मत’ भी है)। अरिय= अरि, शान्नु । अनमति =( अ + नमति ) न झुकने वाला । अह-घर { { ग्रह से यहाँ विष्णु लोक से तात्पर्य है। जहाँ से वीर गति पाने वालों के लिये विमान आते हैं ] । छंडी-छोड़ता हुआ । (के)=या तो । (कै) भान तन सों तन मंडी=या तो रसूर्य के शरीर में अपना शरीर निला देगा अर्थात् सूर्य लोक में वास करेगा । भान<भानु:सूर्छ । रोमनि = रोमांचित हो; [ रोमांच अधिक प्रसन्नता, भय, दु:ख आदि ॐ वेग में होता है। यहाँ इन्द्राणः इतना बड़ा वीर पाकर प्रसन्नता से रोमांवित हो उठीं थी ! | तिलंङ्क= तिलक, ( यहाँ सिंदूर बिंदु से तात्पर्य है जिसे स्त्रियाँ अपने माथे पर लगाती हैं ) । बसिवश । वरी= श्रेष्ठ, सुंदरी (--दर का स्त्रीलिङ्ग रूए ‘बरी' हैं ) । तिर्लक्क बसि=वश में करने वाला विंदु; नोटइस लाल बिंदु में पुरुषों को आकर्षित करने की बड़ी शक्ति होती है और इसके लगाने से स्त्रियों की सुंदरता अत्यधिक बढ़ जाती है। इस विंदु की महिमा अवि बिहारीलाल ने इस प्रकार बखानी है कहत सबै बेंदी दिये, कि दस गुनी हो । तिम शिलार वेदी दिये, अगनित होत उदोते ।। इंद्र बधू = ( सं० शचि }--इंद्र की पत्नी इंद्राणी, दानवराज पुलोमा की कन्या थीं। उनके पर्यायवाची नाम--सच्ची, ऐंद्री, पुलोमजी, माहेन्द्र, जयवाहिनी भी हैं । झोपंस --उपमा देने के योग्य । न न हुआ बहुरि=किर नहीं हुआ। बहुरि ( या बहुर ) [देशज] [हिं० बहुरना< सं० प्रघूर्णन ] , उ०-बहुर लाल कहि बेच्छ कहि; आगे चले बहुरि रघुराई–राम चरित मानस । नन को न न पढ़ना चाहिये जे (Double negatives ) हैं। अवतार-{ अवतरति ये ति अवतारः )----जन्म । अवतार न बर हैं कहीं=(१)» न कहीं जन्म लेग। (२) जन्मा हुथा कहीं नहीं है। रू० ६२–दरि परयौ = दौड़ पड़ा ; [ ययाँ टरि परयौ का अर्थ माई गा लेना उचित न होगा क्योंकि अगले रू० ६४ में हमें फिर हुसेन खाँ का हाल मिलता हैं ] । अश्व सार<अश्व सवार-धोड्सबार सेना से तात्पर्य है। सार=क्ति । फुनि<सं० पुनः= फिर । परयौ बहि: बह पड़ी