पृष्ठ:Reva that prithiviraj raso - chandravardai.pdf/३३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(९८)

________________

९८ ) अर्थात् कुली । समानं = समानरूप से उसी प्रकार । निसा मान = निशा को मानकर या अया जानकर । नीसन-नगाड़े। नीसन (क्रिया)= निशाने पड़ना या चोट पड़ना । धुन्यं = धुश्राँ, अंधड़ ! धूरिन =बूल' । मूरिनं<मुड़ि नम मुड़कर; [ श्री केलाग महोदय ‘नम' को कृदंत मानते हैं ] । पूर अं=कुएँ पूर दिये या भर दिये 1 पंसि = (१) पंक्ति (२)<सं० पदाति=पैदल सेना । मुलं लग्गि= आगे बढ़कर । पारस्स=चारों शोर, चक्र और मंडल सदृश, इसका अर्थ सेना भी लिया जा सकता है । कुछ विद्वान् “पारस्स’ को ‘परस्पर की अपभ्रंश भी मानते हैं । 3 घेरी=घेरा बना लिया । भये = होने पर । प्रात प्रात:काल । सुजात- जन धातु से क़ बत् सुजात् अर्थात् ‘सुंदर उत्पन्न प्रात:काल’ हुआ; सुज्जात< सु+जात (पैदा) । प्रालं = खाल (=गड़हा) । झालं<सं० स्थल } चडुब्दांन= चौहान । उहाय= उठा । सालो= शाल वृक्ष । पिथालं (अप०)<सं० पृथुल= मोटा, विस्तृत, विशाल । नोट--(१) गाथा और प्राकृत की रीति छंद पंक्ति के अंतिम शब्दांत में अनुस्वार जोड़ने की है इसीलिये हम अमानं, समानं, धूआं, कु, घालं, पिथालं आदि शब्द रासो में पाते हैं ।। (२) भानु जी ने अपने ग्रंथ ‘छेदः प्रभाकर' में भुजंगी छंद के लक्षण तीन यगण तथा लघु गुरु’ बलाम्रा है । वातट समय में भुजंगी छंद का नियम भुजंगप्रयात का अर्थात् चार यगण वाला है, अस्तु इस विषय में भ्रम नहीं होना चाहिये । कवि ले भुजंगप्रयात को ही भुजंगी नाम में प्रयुक्त किया हैं ।। (३) पिछले ८० ६१, छं० ७४ में आये हुए 'बले' शब्द का अर्थ फिर' है ! वले (गु०)<सं० वलय] = समव का पुनरावन, फिर; ३०‘चली बाढ दे सिली सिली वरि, काजल जल वालियौ किर' ।। ८६ ।।; कर इक बीड़ वले वाम करि, कीर सु तनु जाती क्रीड़न्ति' ।। ६६ वेलि क्रिसन रुक्मिणी री। वाणी जगराशी ले, मे चीताशी मुढे ।। २ ।। वीर सतसई, सूर्य्यमल्ल मिश्रण] । बले<फा० 2, ( बले ) [ := लेकिळ ]>प० । ( बले )= हाँ। कबित। जैत बंध ढहि परयौ, सुलष लम्पन की जाथौ । तहँ झगरी महमाय', देवि हुंकारौ पायो ।। हुंकारै हुंकार, जूह गिद्धनि उड्डायौ । गिद्धिनि ते अपरा, लियो चाहतौ न पायौ ।।। (१) ना० -तृष्प (२) to:-तहां चैरि महामाया ।