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| ( ७es ) दुहि सीतम धूप न कंदहि जीव । प्रगटै उर तुच्छ सोऊ उ भय ।। बिन पल्लव कोर हिती रहि संभ' । गहना बिन बाल विराजत अंभ (१ छ० ८५ कलि कंठन कंठ सयौ अलि पंप ।। न उड़िय भंग नवे लिय अंष ।।। सजी चतुरंग सज्यों बनाई। जो इन उप्पर सैसव जाई ।। छं० ८६ ।। कवि मत्तिय जूह तिनं बहु घोर । ब्रनंत वैसंधय चंदू कठोर ।। छं० ८७ । रू० ६३ ।। भावार्थ-रू० ६३--- जिस तरह ऋतुराज (वंसत) ने शिशिर को दबा लिया है उसी प्रकार यौवन ने शैशवावस्था को दबा दिया है और अव ऋतुराज और यौवन का जोड़ा सुशोभित हो रहा है। उन ( वसंत और यौवन ) के बीच मधुर वार्ता लाप होता है और उनकी कुछ उपमायें कवि वर्णन करता है । छे० ८१ ।। यौवन का संदर झागमन जानकर क्या कामदेद उत्साहपूर्वक नहीं नाचने लगता है कभी कान नेत्रों से जाकर पूछते हैं कि देखो दौड़ता हुआ कौन आ रहा है ? छं० ८२ ।। | यह शिशिर का शब्द है या शैशव की दुदु बज रही है ? या दोन ऋतुराज और यौवन ( युद्ध के लिये ) सज रहे हैं ? ( नेत्र कानों को उत्तर देते हैं कि ) लाल रंग से अलंकृत होकर या सुंदर वस्त्राभूषणों से सजकर) दोनों ( मनुष्य ) ऋतुराज और यौवन बन को भाग गये हैं। छं० ८३ } नोट---[इय मीन नलीन भये अति रज्जि’ इस पंक्ति से प्रस्तुत रूपक की अंतिम पंक्ति तक एक पंक्ति में यौवन और दूसरी में ऋतुराज या वसंत का क्रमशः वर्णन है।] (वसंत ऋतु में ) मछलिय (कमल के डंठलों के समीप) रहकर प्रसन्न होती हैं। ( यौवन काल में ) भय और विभ्रम { - संदेह ) को भार लज्जा ढोती है । ( वसंत में) अपनी बारी पर प्रथम भारुत देव अपनी (मृदुल वायु) चलाते हैं । ( यौवन में ) लज्जित चाल और संकोच इकट्ठा हो जाते हैं । (१) न०-कोरहि तारहि रंभ, ए---कोरहि तारे संभ (२) नावगं तब सेय चंद कठोर ।