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मंणिमय वस्त्र एवं स्वच्छ चमकीले हथियार ऐसे सुशोभित होते थे मानों मंदै ज्योति अङ्गगन समूह सूर्य के प्रखर ताप से उत्तापित होकर पृथ्वी की ओर ध्या रहे हों ।' कवित्त पवन रूप परचंड, घालि असु असियर झारै ।। मार भार सुर बञि, पत्त तरु अरि सिर प.* ।। । फट्टकि सद्द फोफरा', हुड्डु केकर उष्पारे ।। कटि भसुण्ड परि मुंड, भिंड कंटक अप्पारे ! बेज्जयो विषम मेवारपति, रज उड़ाइ सुरतांन दल । समरथ्थ समर मनमथ मिलिय अनी मुष्य पियौ सबल छं०६६/५७ भावार्थ-रू० ५७---वह [चित्रांगी रावर समरसिंह अपने वायु वेगी अश्व पर चढ़कर (शत्रुओं के बीच में कूदता है और तलवार से वार करता है । उसके मुँह से मारो मारों शब्द घोत्रित होता है और वह शत्रुओं के मस्तकों को वृक्ष के पत्तों के सदृश तोड़ कर अलग कर रहा है । सैकड़ों फेफड़े फाड़ता हुआ वह हड्डियों को कंकड़ों सदृश उखाड़ता है। उसके भुषंड से कट कर (शत्रुओं के) मस्तक गिरते हैं जिनको वह काँटों की भीड सदृश फेंकता जाता है । भयंकर मेवाड़पति सुलतान की सेना में धूल उड़ाता हु आया । ( इस प्रकार पृथ्वीराज की ) सेना के आगे भन्मथ के समान अतिा हुअ अपने सामंतों सहित सामर्थ्यवान समरसिंह देखा गया ।। | शब्दार्थ-रू० ५७-पवन रूप परचंड=वायु सदृश प्रचंड वेग वाला। घालि= कूदनां, डालना । असु<सं० अश्व-घोड़ा । असिबर-श्रेष्ठ तलवार । झारै= झाड़ता हुआ अर्थात् वार करता हु । मुर<सं० स्वर । वज्जि =बजन। पारै =अलग करना। फड़कि =फाड़ता हुश्रा । सद्द<शत'=सौ (यहाँ सैकड़ों से तात्पर्य है। फोफरो=फेफड़ा । हुडडु==हड्डी । केकर=कंकड़ । उधारै =उखाड़ता है । कटि-कटकर । भसंड<१० भुशुण्ड= एक काटने वाला अस्त्र ! रि--गिरना । मंड=सिर । भिंड =भोट, देर ! कंटक–काँटे । उप्पारे=उपारना, नोच फेकना । वज्जयो युद्ध करने वाला; बजा [-यहाँ विषम मेवाड़ पति बज्जयो (=धमका, अया)]। रज उड़ाइ-=-धूल उड़ाता हुय। समरथ्थसं० समर्थ=पर क्रमी । समर=समरसिंह मेवाड़पति-चित्रांग रावर---पृथ्वीराज का बहनोई (१) हा०, ना०-फह%ि (२) १० कृ० को०-फीफरे (३) ए० कृ० को ०--- मनमथ मिल, मिली, मिल्यौ , न०----समर मिलिय ।।