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क्रम यों है--२, ३, ४, ३,४, ३, ४,५=२८ ! जहाँ २ चौकल हैं उनमें 'जन', जगणं ( 15 ) अति निषिद्ध है, अन्त में रराण कर्ण मधुर होता है ।' छंदः प्रभाकर, भानु । रासो में आया हुआ दंडमाली छंद इन लक्षणों से मिल जाती है अतएव यही संभावना होती है कि चंद के काल में हरिगीतिका या महौसरी छंद को दंडमाली छंद भी कहते रहे होंगे । आधुनिक छंद ग्रंथों में यह छंद अपने दंडमाली' नाम से नहीं मिलता। क्रय गाह इक मुगति की, क्यों करिजै वाघांन । मन अनंष सामंत नै, ( ज्यौं ) कच करवति पाषांन ।। ॐ० ६३ ।रू० ५१। दूहा बाइ3 बीष धुंधर परिय, बद्दर छाये भांन । कुन घर मंगल बजहों, कै चढ़ि मंगल आंन ।। छः ६४ । ६ ५२ ।। दिष्ट देधि सुरतांन दल, लोहा चक्कत बनि ।। धहक फेरि उड़गन चले, निसि आगम फिरि जांन५ ।। ॐ ६५ । रू० ५३।। धजा बाइ बंकुर उड़ति, छवि कविंद इह आइ । उड़गन चंद निरिंद विय, लगी मनो" अइ पाइ ।। छं- ६६ । ८० ५४ ।। सेसनि संकहि बजतहि, वाजे कुहक सुणंग६ ।। मेटै सद्द निसान के, सुने न श्रवन ति अंग ।। छं० ६७ । रू० ५५ । अनी दोउ घन घोर ज्यौं, धाइ मिलें कर घाट । चित्रंगी रावर बिना, करै कोन दह बाट ॥ छं. ६ । रू ५६।। | भावार्थ-८० ५१--यह ( युद्ध-क्षेत्र ) मुक्ति क्रय करने का बाज़ार है जिसका वर्णन नहीं हो सकता } सामंत का क्रोध इस समय आरे के सिल्ली चढ़ जाने के समान हो गया ( अर्थात्-झे बलवान और वीर तो थे ही इस क्रोध के आवेश में उनका पौरुष और भी प्रचंड हो उठा ) ।। (१) ह७ि ना०----ॐ म (३) मो०-यौ क बकरवती (३) ना ०.--वाई (४) को० ए०-जाम (५)' ए ० म ०—मानीं, मानो (६) न० ---सुरंग (७) 'ला सी०–श्रवनन (८) ना०~~-बाय मिले कर धाद ; ए० कृ को ०-नीलम (talk) धाधा मिले क श्रटि कर थाट ।