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गोरी से युद्ध छेड़ दें और दूसरा मत यह था कि पहले पृथ्वीराज अपने इष्ट, मित्र, सामंत अादि सबको बुलायें फिर एक बड़ी सेना तैयार कर शाह से युद्ध करें। इन दोनों मतों पर विवाद होकर पहले सत की विजय रही और शीघ्र ही युद्ध छेड़ने की तैयारी होने लगी, जैसा कि हम आगे पढ़ेंगे । दूहा परी षोर तन दंग मम, अन्य जुद्ध सुरतांन । अब इह मंत विचारिये लरन सरन परवान ।।” छं० २६ । रू० २६। गजन सिंह प्रथिराज कै, है दिषिय परवन । बज्जी पप्पर पंडरै, चाहुवन सुरतांन ।। छं०३० । रू० ३० । ग्यारह अष्षर पंच षट, लघु गुरु होइ समान है। कंठ सोभ बर छंद कौ, नाम की परवान ।। ॐ० ३१ । रू ३१ । भावार्थ--रू० २१– दरबार में इन दो विभिन्न मतों पर विवाद बढ़ते देखकर पृथ्वीराज ने कहा -“तुम लोगों के मतभेद की बातें सुन सुन कर मैं परेशान हो गया हूँ । सामने सुलतान से युद्ध है ( अतएव ) अब इस मत पर विचार करो कि लड़ना और मरना ही निश्चित है ।” रू ३०-पृथ्वीराजे का (यह) सिंह गर्जन सुनकर यह बात निश्चित हो गई कि चौहान सुलतान के विरुद्ध बोड़ों के ज़िरह बख़तर खड़खड़ाये (यो कसे )। . रू० ३१---पाँच और छै के क्रम से ग्यारह अक्षर ( जिस छंद में) हों ( तथा जिसमें ) लघु और गुरु समान हों, ऐसे श्रेष्ठ छंद का नाम कंठशोभा निश्चित है ।। शब्दार्थ-रू० ३६----ौर<खोर सं० खोटदोष, बुराई । उ०-~*कहाँ पुकारि खोरि मोहिं नाहीं । रामचरित मानस ]। यहाँ ‘घोर' का बुराई अर्थ लेकर मतभेद' अर्थ लिया गया है क्योंकि सामंतों में वादविवाद होते-होते बुराई होने लगी थी। वैसे ‘बुराई' शब्द को व्यवहार भी अनुचित न होगा । अग्ग<सं० अ-अागे । इह=यह । परवान<सं० प्रमाण=निश्चित । दंग<। फा० ७ya (परेशान) । । रू० ३०----गजन= गर्जन । * = को | है दिघिय परवान-प्रमाणित ( निश्चित ) दिखाई दिया । बज्जी<सं• बाजि= घोड़ा। पथ्षर<सं० पक्ष (१) एe-मम ; ना०--गर्म ; इra-~-( २) ना०—जत संग ; ४० के० | को०-गजन सिंग ( ३ ) ची---लहु ।।