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गज के सिंघ सा पुरिष जहाँ सधै तह झुळझै । समौ असमौ जनहि न लज्ज पंकै लुऽहै ।। सामंत मंत जानै नहीं मत्त गहैं इक सरन कौ । सुरतान सेन पहिले बंध्यौं फिर बंध्यौं तौ करन कौ ।। छं० २७ रू० २७॥ कवित्त रे गुज्जर गवाँर रोज लै मंत न होई । अप्प मरै ४ छिज्जे नृपति कौन कारज यह जोई। सब सेवक चहुअन देस भग्गै धर पिल्लै । पछि कांभ कहँ५ करै स्वामि संग्राम इकल्लै ।। पंडित भट्ट कवि गाइना नृप सौदागर वारि हुअ । गजराज सीस सोभा भंवर क्रन उडाइ बहू सोभ लह । छ०२८। रू०२८ भावार्थ-६०२५-रघुवंशी राम चिल्लाता हुआ उठा और(व्यंग्य पूर्वक) बोली सामंत सुनो, शाह आ गया और वाह वा तुम्हारा बल (=साहस) छूट गया (=संग हो गया)। वीर (पुरुष) हाथी और सिंह सदृश जहाँ कहों सध (=धिर) जाता है वहीं युद्ध में जूझ पड़ता है, वह समय असमय का विचार नहीं करता और तज्जा के कीचड़ में नहीं हँसता । सामंतों का एक ही मत है और वह है मरना । इसके अतिरिक्त वे दूसरा मत नहीं जानते । सुलतानकी सेना को मैंने पहिले बाँध लिया था और अबकी न पकड़ लें तो करन (कर्ण) का बेटा नहीं। सुलतान ने तो अपनी सेना पहले ही से बाँध ली है अब तुम भी एक तुझ्यार करना चाहते हो इससे क्या लाभ होगा ह्योनले । रू० २८-ऐ आँबार गुजर, राज्य पा जाने से मंत्रणा देना नहीं आ जाता । तुम स्वयं मरोगे और महाराज का भी विनाश करोगे } (ऐसी सलाह देने से) तुम क्या फल देखते हो ? चौहान के सब सेवक घर चले जावेंगे और महाराज के घर में फूट पड़े जावेगी । तब फिर क्या होगा ? क्या स्वामी अकेले युद्ध करेंगे ? जिस तरह गजराज अपने मस्तक के भौंरों को कान फड़फड़ा कर उड़ाता हुआ शोभित होता है उसी प्रकार राजा अपने पंडित, भट्ट, कवि गायक, सौदागर, वारिवनिताओं आदि सेवकों को भगाकर क्या कभी शोभा पा सकता है ? (१) न० -सुज्झै (२) ए० कृ० को-समौ, असम (३) ना० ---बैध तौ (४) ना०–अप सर (३) दा०—केह (६) सर०–सोस ।