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छठे कवित्त में आने वाले पालकाव्य ऋघि संभवत: दीर्घतमा के पुत्र धन्बंतरि ही हैं । अंबर विहार-आकाश गामी । गति= चाल । मंद हु=मंद | कम( यहाँ क्षीण से तात्पर्य है } 1 हो गई । आरूढ़न < सं० अरोहण=चढ़ना । संग्रहिय=संग्रह किया ( भूतु कालिक कृदंत ), यहाँ संग्रहिय” से पकड़ने का . संकेत है । संभरि नरिंद = साँभर का राजा ( पृथ्वीराज ) । सुर इंद< सं० सुर गर्यद (गयंदहाथी) । भुवि<सं० भू-भूमि, पृथ्वी ! रहिय=रह गयो । नोट–अरिल्ल रूपक का लक्षण-रूप दीप पिंगल' के अनुसार यह है लघु दीरघ को नेम न कीजै ।। ऐसे ही तुक चार भरीजै ।। घोडश कला कली विच धारें ।। छंद अरिल्ला शेषः उचारें ।। इसके किसी चौकल में जन जगण ( ।। } न होना चाहिये ।। छंदः प्रभाकर, भानु । प्राक्कत पैङ्गलम्' में इसका निम्न निम मिलता है सोलह मत पाउ अलिल्लह । वेगि जमक्का भेउ अलिल्लह ।। होण पोहर किंपि अलिल्लह । अंत सुपिअ भण छंदु अलिल्लह ।।१।१२७|| घोडश मात्राः पदावली लभतां द्वेअपि यमके भेद इति गृह्यतां । भवति पयोधरः किमपि अश्लक्ष्यि: सुप्रियोऽन्ते यत्र छंद: अलिल्लह ।। प्रतिपादं षोडश मात्रा:, द्वयोश्चरणयोर्वमकं, जगणो न कर्झव्य:, यंते लघुद्यं च, तत अभि [ लि ] क्लह छंद इत्यर्थः ॥२८॥(ॐ) | कवित्त । अगदेस परब्ब, मद्धि वन पंड हव्वर । उज्जल जल दल कमल, विपुल लुहिताच्छ सरब्बर ।। श्रापित गज की जूथ, करत क्रीड़ा निसि वासर । पालकाव्य लघुवेस, रहत एक तहाँ रुघेसर ।। तिन प्रीति वधि अलि परसपर, रोमपाद नृप संभरिय ।। आखेट जाइ फैन पकरि, दुरद आनि चंपापुरिय ।। ॐ०६। रू० ६॥ | भावार्थ-रू० ६-[चंद कवि ने फिर कहो ]-पूर्व दिशा में अंग प्रदेश के एक अति सघन वन के मध्य में लोहिताश नाम का सरोवर है, जिसका जल अत्यंत स्वच्छ है और उसमें कमलों के दल प्रस्फुटित हैं । ( उसी