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हैं। पिछले काव्य-सौठव' और 'महाकाव्युत्व' शीर्षंक प्रकरणों में उनका परिचय दिया जा चुका है ।। जायसी के पदलावत' के बारहमासा के-- सिलहिँ जो बिछुरे साजन, अंकल भेटि हं ।। तपनि मृगशिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ||, आदि और सूर के... पिक चातक वन बस; न पावहिं बायस बलिहि न खात । | सूरस्याम संदेसन के डर पृथिक न चा मग जात ।।, अादि सदृश सर्मस्पर्शी भावों के व्यक्तीकरण काश्रेय ऋतु-वर्णन विषयक काव्य-रूढ़ि रासो के अन्य महत्वपूर्ण कथा-सूत्र भी विचारणीय हैं । जब तक नीन शिलालेख और ताम्रपत्र इस चरित-कथा काव्य के अनेक तथ्यों का इतिहासकारों द्वार मनोनीत कराने के लिये नहीं मिलते तब तक कथा-सूत्रों और काव्य-रूढ़ियों के सहारे साहित्यकार कुछ निर्णय देने और विवेक जागृत करने का सदुप्रयास तो कर ही सकता है । यह किससे छिपा है कि उसकी इस दिशा की खोज वैज्ञानिक गुरु ( Formulae ) नहीं, जिनका परिणाम स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष हो जाता है वरन् ये वे मार्ग हैं जिनका सतर्क अनुसरण दुसाध्य गन्तव्य तक पहुँचने में कुछ दूर तक सहायता अवश्य कर सकता है । प्रामाणिकता का द्वन्द् जनश्रुति ने दिल्लीश्वर पृथ्वीराज और उनकी शूरवीरता की गाथा, हिन्दी-प्रदेशों के घर-घर में व्याप्त कर रखी थीं } दिल्ली के इस अन्तिम हिन्दू सम्राट का नाम हिन्दू जनता के लिये दान, उदारता, पराक्रम, निर्भयता, साहस और शौर्य की जागृति बनकर इन पौरुषेय गुणों के वाहन का मंत्र भी हो गया था । अनित गुण वाले इस योद्धा के कार्यों से अभिभूत होकर विमुग्ध जनता की अनुश्रुति का उनमें अन्य अश्रुतं परन्तु अनुरूप तथा बहुधा अतिरंजित घटनाक्रों द्वारा अभिवृद्धि करना स्वाभाविक ही था। भारत की जातीय और धार्मिक नई चेतना के प्राण देने वाले शिवाजी और छत्रसाल के साथ राणा प्रताप, हम्मीरदेव तथा राणा साँग की स्मृति सहित पृथ्वीराज का नाम भी हिन्दू, सम्मान और श्रद्धा के साथ स्मरण करता रहा। निरक्षर जनता का