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( १२३ ) आसिय त तार सज पबर स यदूत | सहस हृस्ति चवसई रुन्छ गज्जेत महल ।। पंच कोटि चाइक सुफर पारङ्ग धनुर्द्धर । जुश्च जुबान बर वर तो में बंधन मन भर ।। छतीस सहस रन नाइबौ विहीं निम्मान ऐसो कियौ । ॐ चंद रह कवि : कहि उदधि बुद्धि के धर लियौ ! -रासी, पृष्ठ ६५०२, पद्य २१६. (४) मूल जइतनं चक्काइ देव तुह दुसह प्रयाउ, भर चिसरि उद्धसई एइई राह में गई । तेलु मङि संकिपउ मुक्कु हयग्वनि सिरि खंडियो, तुझ्को सो हरबलु भूलि सु चिय तणि मंडिश्न । उच्छलीउ रेणु जसरि गय सुकवि व (ज) ल्हु सकाउ' चवइ, वर्ग इंदु बिंदु भुयजुलि सहस नत्रण किण परि मिल६ ।। | 4-2ठ ८६, पद्यांक १ २६ )। अपभ्रश के इन छन्दों के आधार पर मुनिराज ने लिखा, ४ या में से तीन पद्य यद्यपि विकृत रूप में लेकिन शब्दश: उसमें हमें मिल गए हैं इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद केवि निश्चिततया एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदुसम्राट पृथ्वीराज के समकालीन और उसका सम्मानित एवं राजकवि था ! उसने पृथ्वीराज के की तिलाव व बर्णन करने के लिए देश्य प्राकृत भाप में एक काव्य की रचना की थी जो पृथ्वीराज रासो के काम से प्रसिद्ध हुई है....इसमें कोई शक नहीं कि पृथ्वीराज रासो मान का जो साइको बर्तमान में युब्ध है उसका बहुत बड़ा भए पोछे से बना हुआ हैं । उसका यह बनावटी हिस्सा इतना अधिक और विस्तृत है, और इसमें मूल रचना का अंश इतना अल्प है और यह भी इतनी विकृत दशा में है, कि साधारण विद्वानों को तो इसके बारे में किसी प्रकार की कल्पना करना भी कठिन है !....सालूम पड़ता है कि बंदकवि की मूल कृति बहुत ही लोक प्रिय हुई और इसीलिए ज्यों में समय बीतता गया त्यों त्यों उसने पीछे से चारश और भाट लोग अनेकानेक नये नये पद्य बनाकर मिलाते गये और उसका कलेवर बढ़ाते भए । कण्ठानुकठ उसका शुजार होते रहने के कारण मूज पडों को भा में भी बहुत कुछ परिवर्तन