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में डॉ. श्यामसुन्दर दास ने इसे महाकाव्य न कहकर विशालकाय वीर काव्य' कह ना ही उचित ठहराया, बाबू लावाय' ने इसे स्व::धिक विकास शाल महाकाव्य (Fpic of Growth) माना है और प्र० ललितप्रसाद सुकुल ने इसे साङ्गोपाङ्ग सफल एवं सिद्ध महाकाव्य बताया है। বঙ্গ স্থান। सन् १६२८ ई० { सं० १९८५ वि० ) में जब महामहोपाध्याय दण्डित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा कई ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा ‘पृथ्वीराज-रा को सर्वथा अनैतिहासिक सिद्ध व.रते हुए पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबार में चन्द वरदायी के अस्तित्व तक पर सन्देह प्रकट कर चुके थे उसके आठ वर्ष बाद सन् १६६६ ई० में मुनिराज जिनविजय जी ने सन् १२३३ ई० ( सं० १२६ ० वि०अर्थात् सन् ११६२ ई० में पृथ्वीराज को मृत्यु के ४१ वर्ष बाद रचित संस्कृत-प्रबन्धों में आये हुए उनसे सम्बन्धित चार अपभ्रंश छन्दों की शोध तो की ही परन्तु साथ ही उनमें से तीन नागरी प्रचारिश सभा द्वारा प्रकाशित रालो में भी दृढ़ निकाले ।५ तुलना सहित उक्त छन्द इस प्रकार हैं :---- इक्कु बागु पहुचीसु जु पई कई बासह मुक्कयो, उर भिंतरि बुइहडिङ धीर कक्वंतरि चुक कउ | बोनं करि सन्धीउ सँसइ मेसरनंद !, एहू से गडि दाहिमश्रो लाइ खुद्दई सहभरिए । फुङ छडि न जाइ इहू लुभिङ वाई पलक खेल गुलह, नं जाणा” चन्द बलहिउ किं न वि छुट्टइ इह फल ।। --पृष्ठ ८६, पञ्चक (२७५) १. हिंदी साहित्य, पृ० ८२ ; ३. सिद्धान्त और अध्ययन, भाग २, पृ० ८३ ; ३. साहित्य जिज्ञासा, पृ० १२७ ; . ४. पुथ्वीराज रासो का निर्माण काल; कोषोत्सव स्मारक संग्रह, सं० १९८६ वि०; ५. पुरातन प्रबन्ध संग्रह; भूमिका, पृष्ठ ८-१०, सं० १६६२ वि०;