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रामनाम

चाहिये और फल अीश्वर के हाथमें छोड़ देना चाहिये। अिसलिअे तुम्हें, मुझे और सबको कोशिश तो करनी ही चाहिये। अब तुम समझी न कि मेरी, तुम्हारी या किसीकी बीमारीके विषयमें मेरी क्या धारणा है?"

अुसी दिन एक बीमार बहनको पत्र लिखते हुअे भी बापूने यही बात लिखी–– "संसारमें अगर कोअी अचूक दवाअी हो तो वह रामनाम है। अिस नामके रटनेवालोंको अिसका अधिकार प्राप्त करने के लिए जिन-जिन नियमोंका पालन करना चाहिये, अुन सबका वे पालन करें। मगर यह रामबाण अिलाज करनेकी हम सबमें योग्यता कहां है?"

(मेरी रोज की नोआखालीकी डायरीमें से)

अूपर की घटना ३० जनवरी, १९४७ के दिन घटी थी। बापूकी मृत्युसे ठीक अेक साल पहले।

रामनाम परकी उनकी यह श्रद्धा आखिरी क्षण तक अचल रही। १९४७ की ३०वीं जनवरी को यह मधुर घटना घटी; और १९४८ की ३०वीं जनवरी को बापू ने मुझसे कहा कि 'आखिरी दम तक हमें रामनाम रटते रहना चाहिए।' अिस तरह आखिरी वक्त भी दो बार बापू के मुंहसे 'रा . . . म! रा . . . म!' सुनना मेरे ही भाग्य में बदा होगा, अिसकी मुझे क्या कल्पना थी? अीश्वर की गति कैसी गहन है!

('बापू–– मेरी मां' से)