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कुमुदनी से ढंका स्वच्छ जल

है। ट्यूबवैल जहां खोदा गया है, वहां बिजली नहीं है। वह डीजल से चलता है। डीजल और भी कहीं दूर से टैंकर के जरिए आता है। कभी टैंकर के ड्राइवर छुट्टी पर चले जाते हैं, तो कभी ट्यूबवैल चलाने वाले। कभी डीजल ही उपलब्ध नहीं होता। उपलब्ध होने पर उसकी चोरी भी हो जाती है। कभी रास्ते में पाइप लाइन फट जाती है–इस तरह के अनेक कारणों से गांवों में पानी पहुंचता ही नहीं है। नई बनी पानी की टंकियां खाली पड़ी रहती हैं और गांव इन्हीं पारों से पानी लेता है।

राजस्थान की संस्थाओं, अखबारों को पानी देने की ऐसी नई सरकारी व्यवस्था से जोड़े गए, जोड़े जा रहे गांवों की नियमित जानकारी रखनी चाहिए। नए माध्यम से पानी आ रहा है, कितना आ रहा है, इसकी हाजरी लगनी चाहिए। तभी समझ में आ सकेगा कि आधुनिक मानी गई पद्धतियां मरुभूमि में कितनी पिछड़ी साबित हो रही हैं।

इंदिरा गांधी नहर से जोड़े गए उन गांवों की भी ऐसी ही हालत हो चली है, जहां पहले पानी कुंइयों से लिया जाता था। चुरू जिले के बूचावास गांव में कोई पचास से ज्यादा कुंइयां थीं। सारा गांव शाम को एक साथ इन पर पानी लेने जमा होता था। मेला सा लगता था। अब नया पानी कहीं दूर से पाईप लाइन के जरिए सीमेंट की एक बड़ी गोल टंकी में आता है। टंकी के चारों तरफ नल लगे हैं। इस नए पनघट पर मेला नहीं भीड़ जुटती है। झगड़ा होता है। घड़े फूटते हैं। टंकी में पानी रोज नहीं आता, कभी-कभी तो हफ्ते दो हफ्ते में एकाध बार पानी आता है। इसलिए पानी लेने के लिए छीनाझपटी होती है। गांव के मास्टरजी का कहना है कि शायद प्रतिदिन का औसत निकालें तो हमें नया पानी उतना ही मिल रहा है जितना बिना झगड़े

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राजस्थान की रजत बूंदें