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अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, अफ्रीका और दूर रूस के कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान आदि का माल उतरता था। यहां के माणक चौक पर आज सब्जी-भाजी बिकती है पर एक जमाना था जब यहां माणिक-मोती बिकते थे। ऊंटों की कतार संभालने वाले कतारिए यहां लाखों का माल उतारते-लादते थे। सन् १८०० के प्रारंभ तक जैसलमेर ने अपना वैभव नहीं खोया था। तब यहां की जनसंख्या ३५,००० थी। आज यह घट कर आधी रह गई है।

लेकिन बाद में मंदी के दौर में भी जैसलमेर और उसके आसपास तालाब बनाने का काम मंदा नहीं पड़ा। गजरूप सागर, मूल सागर, गंगा सागर, डेडासर, गुलाब तालाब और ईसरलालजी का तालाब - एक के बाद एक तालाब बनते चले गए। इस शहर में तालाब इतने बने कि उनकी पूरी गिनती भी कठिन है। पूरी मान ली गई सूची में यहां कोई भी चलते-फिरते दो चार नाम जोड़ कर हंस देता हैं।

तालाबों की यह सुंदर कड़ी अंग्रेजों के आने तक टूटी नहीं थी। इस कड़ी की मजबूती सिर्फ राजाओं, रावलों, महारावलों पर नहीं छोड़ी गई थी। समाज के वे अंग भी, जो आज की परिभाषा में आर्थिक रूप से कमजोर माने जाते हैं, तालाबों की कडी को मजबूत बनाए रखते थे।

मेघा ढोर चराया करता था। यह किस्सा ५०० बरस पहले का है। पशुओं के साथ मेघा भोर सुबह निकल जाता। कोसों तक फैला सपाट तपता रेगिस्तान। मेघा दिन-भर का पानी अपने साथ एक कुपड़ी, मिट्टी की चपटी सुराही में ले जाता। शाम वापस लौटता। एक दिन कुपड़ी में थोड़ा-सा पानी बच गया। मेघा को न जाने क्या सूझा, उसने एक छोटा-सा गड्ढा किया, उसमें कुपड़ी का पानी डाला और आक के पत्तों से गड्ढे को अच्छी तरह ढंक दिया।

चराई का काम, आज यहां, कल कहीं और। मेघा दो दिन तक उस जगह पर नहीं आ सका। वहां वह तीसरे दिन पहुंच पाया। उत्सुक हाथों ने आक के पत्ते धीरे से हटाए। गड्ढे में पानी तो नहीं था पर ठंडी हवा आई। मेधा के मुंह से शब्द निकला -'बाफ'। मेघा ने सोचा कि यहां इतनी गरमी में थोड़े से पानी की नमी बची रह सकती है तो फिर यहां तालाब भी बन सकता है।

मेघा ने अकेले ही तालाब बनाना शुरू किया। अब वह रोज अपने साथ कुदालतगाड़ी भी लाता। दिन-भर अकेले मिट्टी खोदता और पाल पर डालता। गाएं भी वहीं आसपास चरती रहतीं। भीम जैसी शक्ति नहीं थी, लेकिन भीम की शक्ति जैसा संकल्प था मेघा के पास। दो वर्ष वह अकेले ही लगा रहा। सपाट रेगिस्तान में पाल का विशाल घेरा अब दूर से ही दिखने लगा था। पाल की खबर आसपास के गांवों को भी