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रहता है। किसी कोने में लकड़ी के एक साफ-सुथरे ढक्कन से ढंकी रहती है मोखी, जिसे खोल कर बाल्टी से पानी निकाला जाता है। टांके का पानी बरस- भर पीने और रसोई के काम में लिया जाता है। इसकी शुद्धता बनाए रखने के लिए इन छतों पर भी चप्पल जूते पहन कर नहीं जाते। गरमी की रातों में इन छतों पर परिवार सोता जरूर है पर अबोध बच्चों को छतों के किसी ऐसे हिस्से में सुलाया जाता है, जो टांके से जुड़ा नहीं रहता। अबोध बच्चे रात को बिस्तरा गीला कर सकते हैं और इससे छत खराब हो सकती है।

पहली सावधानी तो यही रखी जाती है कि छत, नालियां और उससे जुड़ा टांका पूरी तरह साफ रहे। पर फिर भी कुछ वर्षों के अंतर पर गरमी के दिनों में, यानी बरसात से ठीक पहले जब वर्ष भर का पानी कम हो चुका हो, टांकों की सफाई, धुलाई भीतर से भी की जाती है। भीतर उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियां और तल पर वही खमाड़ियो बनाया जाता है ताकि साद को आसानी से हटा सकें। कहीं- कहीं टांकों को बड़ी छतों के साथ-साथ घर के बड़े आंगन से भी जोड़ लेते हैं। तब जल संग्रह की इनकी क्षमता दुगनी हो जाती है। ऐसे विशाल टांके भले ही किसी एक बड़े घर के होते हों, उपयोग की दृष्टि से तो उन पर पूरा मोहल्ला जमा हो जाता है।

मोहल्ले, गांव, कस्बों से बहुत दूर निर्जन क्षेत्रों में भी टांके बनते हैं। बनाने वाले इन्हें अपने लिए नहीं, अपने समाज के लिए बनाते हैं। 'स्वामित्व विसर्जन' का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही मिले कोई। ये टांके पशुपालकों, ग्वालों के काम आते हैं। सुबह कंधे पर भरी कुपड़ी (मिट्टी की चपटी सुराही) टांग कर चले ग्वाले, चरवाहे दोपहर तक भी नहीं पहुंच पाते कि कुपड़ी खाली हो जाती है। लेकिन आसपास ही मिल जाता है कोई टांका। हरेक टांके पर रस्सी बंधी बाल्टी या कुछ नहीं तो टीन का डिब्बा तो रखा ही रहता है।