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या सामने मैदान में बरसने वाला पानी इनमें जमा होता हैं। किसी बरस पानी कम गिरे और ये कुंड पूरे भर नहीं पाएं तो फिर पास दूर के किसी कुएं या तालाब से ऊंटगाड़ी के माध्यम से पानी लाकर इनमें भर लिया जाता है।

कुंड-कुंडी जैसे ही होते हैं टांके। इनमें आंगन के बदले प्रायः घरों की छतों से वर्षा का पानी एकत्र किया जाता है। जिस घर की जितनी बड़ी छत, उसी अनुपात में उसका उतना ही बड़ा टांका। टांकों के छोटे-बड़े होने का संबंध उनमें रहने वाले परिवारों के छोटे-बड़े होने से भी है और उनकी पानी की आवश्यकता से भी। मरुभूमि के सभी गांव, शहरों के घर इसी ढंग से बनते रहे हैं कि उनकी छतों पर बरसने वाला पानी नीचे बने टांकों में आ सके। हरेक छत बहुत ही हल्की-सी ढाल लिए रहती है। ढाल के मुंह की तरफ एक साफ-सुथरी नाली बनाई जाती है। नाली के सामने ही पानी के साथ आ सकने वाले कचरे को रोकने का प्रबंध किया जाता है। इससे पानी छन कर नीचे टांके में जमा होता है। १०-१२ सदस्यों के परिवार का टांका प्रायः पंद्रह-बीस हाथ गहरा और इतना ही लंबाचौड़ा रखा जाता है।

टांका किसी कमरे, बैठक या आंगन के नीचे रहता है। यह भी पक्की तरह से ढंका