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सुमिरन कौ अंग]
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  शब्दर्थ-च्यंता=चिन्ता। नांव =नाम। चितवे=देखे। पाप=पाश।

यंच संगी पिव करै,छठा जुसुमिरै मन।
आई सूति कबीर की, पाया राम,रतन॥७॥

प्रसंग— प्रस्तुत परिच्छेद की चतुर्थ साखी मे मामारिक प्राणियो को उपदेश देते हुए कबीर ने कहा है 'मनसा वाचा क्रमना, कबीर सुमिरण सार।" और प्रस्तुत साखो मे कबीर की पंच ज्ञानेंद्रिय और मन पूरणतया पर ब्रह्म मे अनुरक्त हो गया है प्रस्तुत परिच्छेद मे कबीर ने नाम की महत्ता का अनेक बार महत्व वरणन किया है। " राम नॉम ततसार है," 'राम कहे भल होइगा," 'राम नांव निज सार," कबीर सुमिरण सार है," आदि महत्व को हृदयंगम कर लेने के अनन्तर कबीर मुक्ति प्रप्त हुई और उसे राम रतन की प्रप्ति हुई।

भावार्थ—पंच ज्ञानेंद्रिय एव मन राम नाम का स्मरण सतव रूप से कर रहा है। कबीर को समाधि अवस्था मे रामरत्न सम्प्राप्त हुआ।

विशेष— प्रस्तुत साखी मे कबीर ने अपनी उस निष्ठा और एकाग्रता का उल्लेख किया है जिसको सामान्य रूप से सपूदा प्रत्येक सावन प्राणी को होता है। रहस्यवादी के लिए जीवन क्ष्ण धन्य होता है जब वह मनसा, वाचा कमणा ब्रह्म और रावना मे प्रव्रुत्त हो जाता है उसकी समस्त इन्द्रियॉ ब्रह्म के प्रति उन्मुख होकर, ब्रह्माकार बनने की चेष्टा मे अनुरक्त हो जाती है।(२) समाधि की अवस्था मे कबीर को ब्रह्मनुमूति प्राप्त हुई जो साधक की चरम उपलब्दि होता है।

शब्दार्थ— पंच ज्ञानेंद्रिय सगी=पंच । पिव=प्रिय=प्रह। नूति=समाधि। रतन= रत्न।

मेरा मन सुमिरै राम कॅू, मेरा मन रामहिं प्पहि।
अव मन रामहिं है रहा, सीस नवावौ काहि॥८॥

संदर्भ—समाधि मे ब्रह्म का दर्शन प्राप्त कर लेने पर आत्मा ब्रह्म वाण हो जाती है। जब आत्मा परमात्मा मे समाहित हो गई , मन भेद सम्मान होगए और माया जीवन भेद के विनष्ट हो जाने मे उभय एक हो गए तो दान करे और कौन किसकी उपमाना?

भावार्थ—राम की स्मरण करते-करते मेरा मन हो गया है। मन स्वयं राम हो गया तो किसके प्रति बोध कृपा।

विशेष—(१) प्रस्तुत वाणी मे उल्लेख किया है जब वह