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भूमिका

वीरगाथा काल के अवसान काल में हिन्दी काव्य-धारा की दिशा में अभिनव परिवर्तन के लक्षण परिसूचित होने लगे। मुसलमानों की तलवार के पानी में हिन्दू जनता निमग्न होती जा रहीं थी। मुसलमानों की प्रबल पराक्रम, आतंक, और ध्वन्सात्मक प्रतिभा के समक्ष हिन्दू जनता का ठहर पाना दुस्तर हो रहा था। महमूद गज़नवी के सत्रह हमलों ने ध्वस सोमनाथ की छिन्न-भिन्न मूर्त्ति के समक्ष हिन्दुओं का विश्वास, आस्थाएँ और धार्मिक भावनाएँ शतशः खण्डों में विच्छिन्न होकर धूल धूसरित हो रही थी। मुसलमानों की बढ़ती हुई शक्ति, फहराती हुई इस्लाम की ध्वजा और विनाशकारी गति के समक्ष हिन्दुओं के अस्तित्व पर प्रश्न वाचक चिन्ह अंकित हो गया। उत्तर-पश्चिम से आक्रमणकारियों की बढ़ती हुई फौजों ने हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म के अस्तित्व को धूल धूसरित कर डाला। हिन्दुओं के पास न जन-बल था, न आत्मबल न संघबल वे किस साहस पर और किस आधार पर मुसलमानों की केन्द्रीभूत सत्ता का सामना करते। मुसलमानों के शौर्य और संगठन के समक्ष हिन्दुओं का जन-बल और आत्म-बल क्षीण पड़ता जा रहा था, उनकी स्थिति व परिस्थिति न केवल शोचनीय थी वरन् अनिश्चित भी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी के उद्भव विकास और उत्कर्ष होते-होते उत्तरी-भारत मुसलमानों के अधिपत्य में आ चुका था। और दक्षिण-भारत की स्थिति भी सुरक्षित नहीं थी। देवगिरि के शासक रामचन्द्र को पद्दलित करके उसके राज्य को अपनी सीमा मे मिला लिया। वारंगल, होयमिल, महाराष्ट्र, कर्नाटक की राज्य सीमाओं को अलाउद्दीन ने अपनी सीमा में सम्मिलित कर लिया। दक्षिण में कृष्ण और तुंगभद्र के मध्यस्य सीमा पर अधिकार सम्प्राप्त करने के लिए विजय नगर और बहमनी राज्यों में संघर्ष चलता रहता था। सिन्धु-प्रदेश यद्यपि राजपूतों के अधिकार में था, फिर भी मुसलमानों को आतंक पूर्ण छाया से उन्मुक्त नहीं थी। समस्त देश पर मुसलमानों का प्रभाव क्रमशः बढ़ता जा रहा था। हिन्दुओं के हृदय में भय की भावना बढ़ती जा रही थी और वे मुसलमानों से लोहा लेने की अवस्था से दूर होते जा रहे थे। चारणों के स्वर क्रमशः क्षीण होते जा रहे थे और उनके स्थान पर भारतीय जनता निर्बल के वल क्रमशः वीरगाथा काल को उत्तेजना पूर्ण ओज से समर्पित चुनौती के स्वर क्षीण होते गए और उनका स्थान खंजरी और भाला ने लिया। हिन्दुओं की अवस्था