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ए७ए ] [कबीर
(४) मनिषा जनम पावा--समभाव देखे--"बडे भाग मानुष तन पावा" क्योकि यह 'साधन धाम मोक्ष कर द्वारा" है । तथा--हरि,तुम बहुत अनुग्रह कोन्हो । साधन-धाम बिबुध-दुरलभ तनु,मोहि कृपा करि दीन्हों । (गोस्वामी तुलसीदास)
(१६) रे रे जीय अपनां दुख न सभारा,जिहि दुख व्याप्या रु ब ससारा ॥ माया मोह भुले सब लोई, क्यचित लाभ मानिक दीयौ खोई ॥ मै मेरी करि बहुत बिगूता, जन्नी उदर जन्म का सूता ॥ बहुतै रूप भेष बहु कींन्हां,जुरा मरन क्रोध तन खींनां ॥ उपजै बिनसै जोनि फिराई,सुख कर मूल न पावै चाही ॥ दुख संताप कलेस बहु पावै,सो न मिलै जे जरत बुझावै ॥ जिहि हित जीव राखिहै भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई ॥ मोर तोर करि जरे अपारा, मृग त्रिष्णां झूठी संसारा ॥ माया मोह झूठ रह्यै लागी, का भयौ इहां का ह है आगी ॥ क्छु कछु चेति देखि जीव अबही , मनिषा जनम न पावै कबही ॥ सार आहि जे सग पियारा ,जब चेतै तब ही उजियारा ॥ त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता,मनिषा जनम भयौ चित चेता ॥ आतमां मुरछि मुरछि जरि जाई,पिछले दुख कहता न सिराई ॥ सोई त्रास जे जांनै ह्ंसा ,तौ अजहु न जीव करै संतोसा ॥ भौसगर अति वार न पारा,ता तिरिबे का करहु बिचारा ॥ जा जल की आदि अति न्हीं जानियै,ताकौ डर काहे न मानियै ॥ को बोहिथ को खेवट आही,जिहि तरिये सो लीजै चाही ॥ समझि विवारि जीव जब देखा,यहु ससार सुपन करि लेखा ॥ भई वुधि कछु ग्यांन निहारा,आप आप ही किया विचारा ॥ आपण मैं जे रह्यौ समाई, नेडै दूरि कथ्यौ नहीं जाई ॥ ताके चीन्हें परचौ पावा,भई समझि तासूं मन लावा ॥ भाव भगति हित वोहिथा, सतगुर खेवनहार । अलप उदिक त्व जांणिये,जब गोपदखुर विस्तार ॥ शब्दार्थ-तभारा==ध्यन दिया ।मानिक==माणिक, चैतन्य स्वरूप रूपी मणि ।विगूता==बर्बाद किया ।थिजुग==तियैक,पशु पक्षी आदि की योनि । अलप==अल्प ,योडा सा जो दुर्लध्य न हो । सन्दर्भ-कबीर जीव के अज्ञान का वर्णन करते हुए कहते है। भावार्थ --अरे जीव, तुमने अपने दु ख के कारण पर ध्यान नही दिया । वासनाजन्म इस दुःख से समस्त संसार ग्रसित है । सब जीव माया मोह मे भूले हुए