देती है । वह तिल के समान थोडे से विषयानंद के पीछे सुमेरू पर्वन के समान वृहद दुखो को अपना लेता है और इस प्रकार वह चौरासी लाख योनियो मे भटकना स्वीकार करता है । इस संसार मे सुख थोडा है और दुख बहुत है,परन्तु फिर भी मन रूपी हाथी इन विषयो मे मस्त बना हुआ फूल रहा है । वासना के दीपक की लौ जीव के साथ लगी हुई है । उसके नेम (इन्द्रियो के उपलक्षण) उसके प्रति आसक्तिवश आकृष्ट होकर उसमे पतंगो की तरह गिरकर भस्म होते रहते है । जो जन ईश्वर प्रेम रूप सत्य को छोडकर विपयासिक्त रूप झूठ की ओर दौडते है, उनको सुख शान्ति की प्राप्ति कभी भी नही होती है । विषयो के लालच मे लोग अपना सारा जीव नष्ट कर देते है । अंत काल आने पर वे घवडा कर भागना चाहते है । जब तक यह जीव इस शरीर के सुखोपभोग मे अपने आपको भूला रहता है,तबतक वह जग कर विषय-वासनाओ के इस दु खात्मक रूप को नही देख पाता है । जब वह शरीर को छोडकर प्रयाण करता,तब उसकी समझ मे यह बात आती है कि उसने अनुचित काम ही किया और फिर वह पश्चाताप करने लगता है । विषय वासनाओं की मृगतृष्ण दिन प्रतिदिन बढती जा रही है । मुझे यव इस जीवन मे कुछ भी अच्छा नही लग रहा है । मैने कर्म-बन्धन को समाप्त करने के लिए अनेक प्रयत्न किये,परन्तु कम के बन्धन समाप्त होने मे नही आ रहे है ।
अलंकार -(१) विरोधाभास=सुपना जाना,दुख लेखा, (२) रूपकातिशयोक्ति=विषहर,पारघी,लहरि । (३)रूपक=विष वान,मन मंगल,नैन पतगा । (४)साग रूपक=काल जाइवे । (५)उदाहरण=नीव संसारा । (६)सभंग पद यमक=दिन दिनहि,जानि अजानि । (७)पुनरूक्ति प्रकाश=मुरछि मुरछि,दिन दिन । (८)विभावना=काजी ''' विनासा । (९)विशेषोक्ति=अनेक जतन '' नही जाइ । विशेष-(१)ईश्वर-प्रेम से रहित समस्त साधनाएँ व्यर्थ है । (२)कस गहेचहई -सम्भाव के लिए देखे- कबीरा गर्व न कीजिए,काल गहे कर केस । ना जानै कित मारिहै, क्या घर क्या परदेस । (१४)
रे रे मन बुधिवंत भंडारा,आप आप ही करहु विचारा ॥ कवन सयांन कौन बौराई,किही दुख पाइये किहि दुख खाई॥ कवन सार को आहि असारा,को अनहित को आहि पियारा ॥ कवन साच कवन है झूठा,कवन करू को लगै मीठा ॥ किहि झरियै किहि करिये अनदा,कवन मुकति को मल के फंदा ॥