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आदि अंति ताहि नहीं मधे, कय्यौ न जाई आहि अकथे । अपरंपार उपजै नहीं बिनसै, जुगति न जांनियै कथिये कैसे । जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोइ । कहत सुनत सुख उपजै, अरु परमारथ होइ ।।

शब्दार्थ -निरजन=माया रहित ।

संदर्भ-कबीर परमतत्व की अनिवर्चनीयता का वर्णन करते हैं ।

भावार्थ-प्रभु अलक्ष्य एव माया रहित है । उनको कोई देख नहीं सकता है । अभय एव निराकार तत्व वही हैं । वह न शून्य हैं, न स्थूल हैं । न उनका कोई रूप है और न रेखा ही । वह न दृष्ट है और न अदृष्ट है, वह न प्रकट है और न छिपा हुआ ही है । उसका कोई रग नही है, परन्तु उसको रग रहित भी नही कहा जा सकता है । सबसे अतीत होते हुए भी वह घट-घट में समाया हुआ है । उसके आदि,मध्य,अन्त भी नही है,क्योकि वह देश-काल के परे है। उस तत्व का वाणी के द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता है, वह वाणी से अतीत है-अकथ्य है । वह अपरम्पार है | न उनकी उत्पत्ति होती है और न उसका विनाश ही होता है । वह किसी भी युति प्रमाण का विषय नहीं है । अत शब्दो के द्वारा जैसा भी कहो, वह वैसा नही है । वह तो जैसा है तैसा ही है । उसके विषय में कहने-सुनने (चर्चा करने) से आनन्द की अनुभूति होती है तया उसके गुण-वर्णन से परमार्थ की सिद्धि होती है ।

अलंकार- (१)अनुप्रास-निरजन, न निरभै निराकार ।

          (२)विरोधाभास-सुनि समाई। 
          (३)सभगपद यमक-दिष्टि अदिष्टि, वरन अबरन ।
          (४)सववातिशयोक्ति-कय्यौ न जाई ।
          (५)गूढोक्ति- कथिये कैसे ।

विशेष-(१) इस रमैणी में 'नेतिनेति' सदृश भावाभिव्यक्ति है ।

(२)परम ‘तत्व' के पारमायिक स्वरूप की स्वानुभूति को जगाने का प्रयास है ।

जांनसि नहीं कस कथसि अयांनां, हम निरगुन तुम्ह सरगुन जांनां ।। मति करि हिंन कवन गुन आंही, लालधि लागि आसिरै रहाई । गुं न अरु ग्यांन दोऊ हम हीनां, जैसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हां ।। हम मसकीन कछू जुगति न आवै, ते तुम्ह दरवौ तौ पूरि जन पावै । तुम्हारे चरन कवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता || जहुवां प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा । बाजै तंत्र नाद, धुनि होई, जे वजावं रो ओरं कोई ।। बाजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहू पेखा ||