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अलंकार-(१)मानवीकरण-साधनाओं का।

     (२)उदाहरण-नही जैसे बिन राज।
     (३)गूढोक्ति-जरसि कबन आगी?
     (४)रूपक को व्यंजना-भौ।
     (५)सववातिशयोक्ति - सुम्रित    काज।

विशेष (१) वाह्यचार कि व्यर्थ्त एव भगवत्भक्ति कि महता क प्रति पादन है।

      (२) राम्भक्ति को सोउभग्यसूछक चिन्ह कहना बढा ही सार्थक प्रयोग है।
      (३) कबीर के राम दाशरतथि राम न होकर निर्गुण निराकार राम है।

कबीर राम के साकार सूप कि आराधना क प्रतिपादन न करके उनके गुणो के अनुसरण क उपदेश देते है।


अब गहि राम नाम अविनासी, हरि तजि जिनि कतहूँ कै जासी। जहाँ जाइ तहाँ तहाँ पतगा, अब जिनि जरसि समझि विष सगा॥ छोखा राम नाम मनि लिन्ही भिग्री कीट ब्यन नही किन्ही। भोसागर अति वार न पारा, ता तिरबे क करहु विचारा॥ मनि भावै अति लहरि बिकारा, नहि गमि सूभ्त बार ज पारा। भोसागर अताह जल, तामे बोहित राम अधार। कहै कबीर हम हरि सरन, नव गोपद खुर विस्तार॥

शब्दर्थ - कै= किधर, कहौ । वोहित = जहाज, नोका । गोपद = गाय का पैर। सन्दर्भ - पुर्व रामैणी के अनुसार। भावार्थ - हे जीव । अब तुम अविनाशी (सत्य स्वरूप) भगवान के नाम स्मरण कि शरण ग्रहण करो। हरि का आश्र्म मत छोडो। उसे छोड्कर गुम अन्यत्र जाओगे भि कहौ? जहौ भो तुम जाओगे, वहौ वहौ गुम्को वासना रूपी अग्नि मे पतंगा वन कर जलना पडेगा। अब विषयासक्ति के वास्तविक सूप को समभ लो और विषय की अग्नि मे अपने जीवन को नष्ट मत करो। जो प्राणणी राम-नाम रूपी श्रेष्ठ मणि क आश्रय ग्रहंण कर लेते है। इस भवसागर कि कोई सीमा नहि है। इसके पार होने के उपाय पर विचार करना चाहिए। जिनके मन विषय-विकार रूपी लहर के प्रति आकर्षित होते है, उन्हे भवसागर की न सीमा दिखाई देती है और न उसके पार जाने का उपाय ही सुभ्त है। इस सन्सार रूपी सागर मे विषयोँं का अथाह जल हैं तथा इसको पार करने का एक मात्र साधन राम-भक्ति रूपि नाव हैं। कबीर दास कहते है कि हमने तो भगवान की शरण ले ली है। इस्से हमे तो यह भव का विस्तार केवल गाय के खुर के समान ही प्रतीत होने लगा है।