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रमैंणी
दृष्टव्य-रमैंणी को रामणी अथवा 'रमायण' का विगडा रूप माना गया है। रमैंनियो की रचना दोहा-चोपाइयो मे की गई है। कबीर की रमैंनी के वण्र्य विपय है। स्तुति-वर्णन,उपदेश-वर्णन अथवा लोकोपकार का निरूपण आदि। राग सूहौ तू सकल गहगरा,सफ सफा दिलदार दीदार॥ तेरी कुदरति किनहू न जानीं,पीर मुरीद काजी मुसलमानी। देवी देव सुर नर गण गध्रप,ब्रह्मा देव महेसुर॥ तेरी कुदरति तिनहूं न जांनी ॥टेक॥ शदब्दार्थ - गहगरा=गहगहा,praphull,आनन्द से युक्त्त । सफ सफा=स्वच्छ एव उज्ज्वल ।
दीदार=साक्षात्कार स्वरूप । कुदरति=माया अथवा सृष्टि । पीर=घमंगुरु । मुरीद=चेला । काजी=मीलवी । मुसलमानी=मुसलमान सम्बन्धी ।
सन्दर्भ - कबीर भगवान की महिमा क वर्णन्न्करते है । भावार्थ - हे भजगवान तुम तुम्हारा दर्शनपूर्ण आनन्द स्वरूप,स्वच्छ एवं उज्ज्वल तथा
प्रेमास्पद है । किसी मे भी तुम्हारी लीला(सृष्टि के रहस्य)को नही जाना है ।मुसलमानो मे सिध्द या धर्मगुरु(पीर),चेले,न्यायकर्त्ता विचारक(काज्ञी)कहे जाने वाले,तथा देवी देवता,सुर,नर,गंधर्व,ब्रह्मा,महेश्वर आदि कोई तेरी लीला को नही समभ्क पाए है ।
अलंकार - सम्बोघितशयोक्ति-सम्पूर्ण छन्द । एकपदी रमैँणी [१] काजी सो जो काया बिचांरै,तेल दीप मैं बाती जारै ॥ तेल दीप मै बाती रहै,जोति चीर्हि जो काजी कहै ॥ मुलना बंज देइ सुर जानी,आप मुसला बंठा तानी ॥ आपुन मे जे करे निवाजा,सो मुलना सरबत्तरि गाजा ॥ सेष सहज मै महल उठाया,चद सूर बिचि तारी लावा ॥ अर्ध उर्घ बिचि आनि उतारा,सोई सेष तिहूं लोक पियारा ॥