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८ ५ ० ] [ कबीर

पात झडता यूँ कहे, सुनि तर-वर वन-राइ । अब के बिछुड़े ना मिले, दूरि पड़ेगे जाइ । (कबीरदास)

राग धनाश्री ३९८ ) जपि जपि रे जीयरा गोदृयंदो, हित चित परमांनदौ रे । विरही जन कौ बाल हो, सब सुख आंनदकदौ रे ॥ टेका। धन धन झोखत धन गयौ, सो धन मिल्यौ न आये रे । ज्यू' बन फूली मालती, जन्म अबिरथा जाये रे ।। प्राणी प्रीति न कीजिये, इहि झूठे संसारी रे है धुवां केरा धौलहर, जात न लागे बारो रे॥ माटी केरा पूतला काहे गरब कराये रे दिवस चारि कौ पेख्ननौ, फिरि माटी मिलि जाये रे ।। कांभी रांम न भावई, भावे बिपै विकारी रे । लोह नाव पाहन भरी, बूड़त नांहों बारो रे ।। नां मन सूवा न मरि सक्या, नां हरि भजि उतरया पारो रे 1 कबीरा कंचन गहि रह्रमैं, कांच गहै संसारी रे ।। शब्दार्थ - बालहौ=वल्ल्भ्, प्रिय । घोलहर=महल । जात=नष्ट होते हुए । देखनी-देखना भर । सन्दर्भ-कबीरदास जीवन की निस्सारता का वर्णन करते है । भावार्थ-रे जीव, तुम सदैव गोविन्द का भजन करते रहो । उन परमानंद स्वरूप प्रभु में ही अपनी प्रीति और चित्त लगाओ । भगवान विरही भक्तजनो को प्रिय तथा सब प्रकार का सुख एवं आनन्द देने वाले हैं । सांसारिक सुख-सम्पति के लिए परेशान होते हुए यह जीवन- रूपी घन नष्ट हो गया और वह भी तुम्हे प्राप्त न हो सका । जिस प्रकार निर्जन वन में फूलने वाली मालती का जन्म व्यर्थ जाता हैं-वह अपनी सुगन्ध द्वारा किसी को भी उल्लसित नहीं कर पाती है, उसी प्रकार सेवा रहित प्राणी का जन्म व्यर्थ ही चला जाता है । इन सांसारिक प्राणियों के मोह में मत र्फसो । यह समस्त संसारी भिध्या हैं । ये धुएँ के महल के समान है । इनको नष्ट होते देर नहीं लगती है । यह शरीर मिटूटी का खिलौना है : यह सहज ही नष्ट हो जाता है । इस पर क्या गर्व करना ? यह शरीर तो चार दिन तक देखने भर की शोभा मात्र है । यह तो फिर मिटटी मे ही मिल जाएगा । विषयासक्त व्यक्ति को राम भक्ति अच्छी नाहीं लगती है, उसको तो विषय रूपी विकार ही अच्छे लगते हैं । विषयी पावन का जन्म पत्थरों से भरी हुए लोहे को नाव के समान है, जिसको डूबते हुए देर नहीं लगती है । वासनात्मक मन न कभी मरा और न कभी मर सकेगा । विषयों व्यक्ति हरि का भजन करके कभी पार भी नहीं उतर सके हैं । कबीरदास कहते है कि मेने तो हरि भक्ति रुपी सुवर्ण का आश्रय ले जिया है । इन